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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ - एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन १४: हो गया है । कुछ अर्थोपार्जन करो। ऐसे बैठे-बैठे कैसे काम चलेगा ।' लेकिन चौथमलजी पर इस समझाने का कोई प्रभाव न पड़ता। वे तो धर्मोपार्जन करना चाहते थे तो फिर अर्थोपार्जन की ओर क्यों झुकते ? वैराग्य का पल्लवन उसी समय नीमच नगर में कुछ संतों का आगमन हुआ । चौथमल जी उनके पास जाने लगे । उनका अधिकांश समय संतों की सेवा और धर्मश्रवण में ही व्यतीत हो जाता । केसरबाई के लिए इस संसार का आकर्षण तो पति के देहान्त के साथ ही समाप्त हो चुका था, अब वह अपने कर्तव्यभार से भी मुक्त हो गई थीं। संतों के आगमन को उन्होंने शुभ संयोग माना और अपनी दीक्षा लेने की भावना व्यक्त करते हुए पुत्र से बोली "बेटा ! अब तुम युवा और समर्थ हो चुके हो। तुम्हारा विवाह भी हो चुका है। अब अपनी गृहस्थी सँभालो । मुझे दीक्षा की अनुमति दो। मैं अपना आत्म-कल्याण करना चाहती हूँ ।" "आपकी भावना बहुत प्रशंसनीय है, माताजी ! लेकिन मेरे बारे में भी तो कुछ सोचिये।" चौथमलजी ने कहा । "तुम्हारे बारे में...? अब क्या सोचना बाकी रह गया है ?" "जिस कल्याण पथ पर आप चलना चाहती हैं, उसी पथ पर चलने की मेरी हार्दिक इच्छा है।" पुत्र के ऐसे विचार सुनकर माता चोंक गई। समझाने का प्रयास करती हुई कहने लगी"यह क्या कह रहे हो लाल ! तुम्हारी आयु भी छोटी है और विवाह भी अभी हुआ है । गृहस्थाश्रम का पालन करो। जब आयु परिपक्व हो जाय तो दीक्षा ले लेना ।" "तो क्या दीक्षा वृद्धावस्था में ही लेनी चाहिए ?" "नहीं पुत्र ! ऐसा नियम तो नहीं है, जब भी भावना सुदृढ़ हो दीक्षा ली जा सकती है।" " माताजी! दीक्षा का दृढ़ निश्चय तो मैंने बड़े भाई के देहावसान के पश्चात् ही कर लिया था........" "तो फिर विवाह का विरोध क्यों नहीं किया ?" "आपका हृदय दुखी न हो, इसलिए ।" माता विचारमग्न हो गई। पुत्र ही पुनः बोला " माताजी ! यह मानव शरीर भोग का कीड़ा बनकर गंवाने के लिए नहीं मिला है । तपसंयम ही मानव जीवन का सार है मैं भी दीक्षित होने के लिए दृढ़संकल्प है।" Jain Education International पुत्र के दृढ़ शब्दों से माता समझ गई कि पुत्र की वैराग्य भावना बलवती है। इसे भोगों की ओर नहीं मोड़ा जा सकता। उन्होंने अपनी ओर से स्वीकृति देते हुए कहा "पुत्र ! मेरी ओर से तो तुझे अनुमति है, लेकिन जिसका हाथ पकड़ा है, उसकी अनुमति मी आवश्यक है। बहू को घर ले आ और उसे समझा-बुझाकर सहमत कर ले।" माता की अनुमति पाकर चौथमलजी का गम्भीर चेहरा मुस्करा उठा । उनकी बात उचित थी। अतः वे ससुराल से अपनी परिणीता बहू को लिया लाये । श्रेयांसि बहु विघ्नानि मानकुंवर का विरोध | चौथमलजी ने समझा-बुझाकर अपनी पत्नी मानकुंवर को अपने विचारों से सहमत करने का प्रयास किया तो वह एकदम भड़क उठी । विरोध करते बोलीहुए ― For Private & Personal Use Only --- www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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