SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन दिवाका.म्मृति-ग्रन्थ ।। प्रवचन कला : एक झलक:४१४: चरितार्थ करते हैं। आंख दूसरों को देखती है, अपने आपको नहीं देखती। इसी प्रकार वे लोग भी सारी सृष्टि के रहस्यों पर तो बहस कर सकते हैं, मगर अपने को नहीं जानते । जहां झूठ का वास होता है, वहाँ सत्य नहीं रह सकता। जैसे रात्रि के साथ सूरज नहीं रह सकता और सूरज के साथ रात नहीं रह सकती, उसी प्रकार सत्य के साथ झूठ और झूठ के साथ सत्य का निर्वाह नहीं हो सकता। एक म्यान में दो तलवारें कैसे समा सकती हैं ? इसी प्रकार जहाँ सत्य का तिरस्कार होगा वहां झूठ का प्रसार होगा। अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे हाथी के पैर में सभी के पैरों का समावेश हो जाता है। । धर्म किसी खेत या बगीचे में नहीं उपजता, न बाजार में मोल बिकता है। धर्म शरीर से जिसमें मन और वचन भी गभित हैं-उत्पन्न होता है। धर्म का दायरा अत्यन्त विशाल है। उसके लिए जाति-बिरादरी की कोई भावना नहीं है । ब्राह्मण हो या चाण्डाल, क्षत्रिय हो या मेहतर हो. कोई किसी भी जाति का हो. कोई भी उसका उपार्जन कर सकता है। राष्ट्र के प्रति एक योग्य नागरिक के जो कर्तव्य हैं, उनका ध्यान करो, और पालन करो, यही राष्ट्र धर्म है। राष्ट्रधर्म का भली-भांति पालन करने वाले आत्मधर्म के अधिकारी बनते हैं । जो व्यक्ति राष्ट्रधर्म से पतित होता है, वह आत्मिकधर्म का आचरण नहीं कर सकता। यह अछूत कहलाने वाले लोग तुम्हारे भाई ही हैं, इनके प्रति घृणा-द्वेष मत करो। ज्ञान का सार है विवेक की प्राप्ति और विवेक की सार्थकता इस बात में है कि प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत किया जाए। जुतों को बगल में दबा लेंगे, मुसाफिरखाने में व धर्मशाला में जूतों को सिरहाने रखकर सोयेंगे, मगर चमार से घृणा करेंगे? यह क्या है ? (११) धन की मर्यादा नहीं करोगे तो परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा । तृष्णा आग है, उसमें ज्यों-ज्यों धन का ईधन झोंकते जाओगे, वह बढ़ती जाएगी। (१२) क्रोध एक प्रकार का विकार है और जहाँ चित्त में दुर्बलता होती है, सहनशीलता का अभाव होता है और समभाव नहीं होता वहीं क्रोध उत्पन्न होता है। जो मनुष्य अवसर से लाभ नहीं उठाता और सुविधाओं का सदुपयोग नहीं करता, उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है और फिर पश्चात्ताप करने पर भी कोई लाभ नहीं होता। संस्कृत भाषा में 'गुरु' शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है-'गु' का अर्थ अन्धकार है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy