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________________ :४१३ : प्रेरक प्रवचनांश श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ । (५५) सामूहिक एवं व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान । (५६) आत्मा की अनन्त-अतल गहराई का चित्रण । (५७) खारेपन का अभाव लेकिन खरेपन का विकसन । (५८) विक्षेप-विक्षोभ की गैर-मौजूदगी परन्तु आशीष का अनुरंजन । (५६) अनेकान्त की विशद व्याख्या तथा अपचार के प्रति उपेक्षा । (६०) पाण्डित्य-प्रदर्शन का अभाव और शब्द-जाल के प्रति विपुल अनासक्ति (६१) लोक-परिताप से द्रवणशीलता। (६२) स्वाध्याय की सतत प्रेरणा। (६३) श्रम-निष्ठा का औचित्य । (६४) अनुशासन में कोमलता एवं कठोरता का समयोचित समन्वय आदि । पूज्य जन दिवाकरजी महाराज के प्रेरक प्रवचनांश यों तो पूज्य दिवाकरजी महाराज का प्रत्येक प्रवचन लोक के प्रबोधनार्थ, आत्मशोधनार्थ, जागति की मशाल में चेतना उत्पन्न करने के लिए एवं अज्ञानांधकार के विनाशार्थ दिव्य दिवाकर की भांति है, फिर भी कुछ ऐसे विशिष्ट प्रवचन भी हैं जो अमर हैं, अनुपम हैं और साधना-क्षमता के अविनश्वर स्वर हैं। इनमें आचार की विशुद्धि है, अनुशासन की मर्यादा है, समय का सदुपयोग है, युगीन बोध के साथ स्व-पर-कल्याण की भावना ध्वनित है, और है वैराग्य-विचार-संयमशीलता । यहां कुछ ऐसे ही प्रवचनांश उद्धृत किये जा रहे हैं जो अनन्त काल तक दिव्य मणियों की भांति आलोकित रहेंगे। मनुष्य जैसे आर्थिक स्थिति की समीक्षा करता है, उसी प्रकार उसे अपने जीवन-व्यवहार की भी समीक्षा करनी चाहिये । प्रत्येक को सोचना चाहिए कि मेरा जीवन कैसा होना चाहिये ? वर्तमान में कैसा है ? उसमें जो कमी है, उसे दूर कैसे किया जाए ? यदि यह कमी दूर न की गयी तो क्या परिणाम होगा ? इस प्रकार जीवन की सही-सही आलोचना करने से आपको अपनी बुराईभलाई का स्पष्ट पता चलेगा । आपके जीवन का सही चित्र आपके सामने उपस्थित रहेगा। आप अपने को समझ सकेंगे। __ क्रोध और ताकत का दबाव कोई स्थायी दबाव नहीं है । शान्ति, क्षमा और प्रेम के दबाव में ही यह शक्ति है कि दबा हुआ व्यक्ति फिर कभी सिर नहीं उठाता और न लड़ने आता है। यह एक ऐसी सरल और अनुभवगम्य बात है कि संसार के इतिहास से सहज ही समझी जा सकती है, फिर भी आश्चर्य है कि बुद्धिमान कहलाने वाले राजनीतिज्ञ इसे नहीं समझ पाते और पागलों की तरह शस्त्रास्त्र तैयार करके एक-दूसरे पर चढ़ बैठते हैं । अब तक के युद्धों से ये लोग जरा भीशिक्षा नहीं लेते। (३) बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो प्रत्येक विषय पर तर्क-वितर्क करने को तैयार रहते हैं और उनकी बातों से ज्ञात होता है कि वे विविध विषयों के वेत्ता हैं, मगर आश्चर्य यह देखकर होता है कि अपने आन्तरिक जीवन के सम्बन्ध में वे एकदम अनभिज्ञ हैं। वे "दिया तले अंधेरा की कहावत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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