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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगो किरणें : ३७८ : से द्रवित हो जाता है। मुनिश्री की दया विश्वव्यापिनी थी। वे प्राणिमात्र को कष्ट से पीडित नहीं देखना चाहते थे। क्षमा कमजोरों का नहीं वीरों का भूषण है। कहा भी है-'क्षमा वीरस्य भूषणम् । मुनिश्री एक प्रखर तेजस्वी थे, भय नाम की कोई चीज उन्हें ज्ञात न थी। कोई भी विरोध या धमकी उन्हें अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकती थी। नीतिकार भर्तृहरि ने धीर पुरुषों के लक्षण बताते हुए कहा है कि वे न्याय-पथ से कभी विचलित नहीं होते। सज्जनों को न्यायमार्ग ही प्रिय होता है, भले ही उन्हें कितनी ही विपत्ति झेलनी पड़े। यही कारण था कि इनकी दीक्षा के समय अनेक बाधाएँ आई, इनके ससुर श्री पूनमचन्द जी ने यहाँ तक धमकी दी“खबरदार ! याद रखो, मेरे पास दुनाली बन्दूक है, एक गोली से गुरु के प्राण ले लूंगा और दूसरी से चेले के," किन्तु इन्हें कोई घबराहट नहीं हुई । साध बनने के बाद भी लोगों ने आपको ससुर की ओर से अनिष्ट-आशंका व्यक्त की, तो आपने निर्भयता भरे स्वर में कहा-"आप चिन्ता न करें। आयु पूरी होने से पहले कोई किसी को नहीं मार सकता । यदि मैं धमकियों से डर जाता तो साधु-धर्म हो अंगीकार न कर पाता।" वास्तव में मुनिश्री जी कोमलता व कठोरता के समन्वित मूर्ति थे। विपत्ति में धीरता व कठोर दिल होने का उदाहरण उनके जीवन में दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर प्राणि-मात्र के प्रति करुणार्द्रता, नम्रता के दर्शन होते हैं। भर्तृहरि ने सन्तों का यह स्वभाव बताया है कि वे समृद्धि में कमल की तरह कोमल, पर विपत्ति के समय चट्टानों की तरह कठोर होते हैं । सन्तों को ऐश्वर्य से कभी अहंकार नहीं जागता, और न ही विपत्ति से घबराहट । मुनिश्री के जीवन में सत्पुरुष की ये विशेषताएं स्पष्ट झलकती हैं । अपने सहयोगियों के साथ व्यवहार में वे बाहर से कठोर दिखाई पड़ते थे, पर भीतर से कोमल थे। एक बार उन्होंने (देवेन्द्र मुनिजी महाराज शास्त्री को) कुशल शासकता का रहस्य स्पष्ट किया था—“शासक को तो कुम्हार की तरह होना चाहिए। वह ऊपर से प्रहार करता है, किन्तु भीतर से अपने कोमल हाथ का दुलार देता है। अनुशास्ता मर्यादा-पालन कराने के लिए कठोर भी होता है और कोमल-मद् भी । किन्तु दोनों ही स्थितियों में उसमें परमार्थ की भावना होती है, स्वार्थ की नहीं।" ४. पाप-विरति मनसा, वचसा, कायेन वे पूर्ण निष्पाप थे। वे तो ऐसे प्रेरणास्रोत थे जिससे पापी से पापी भी सदाचार की ओर मुड़ पड़ता था। उनका जीवन एक खुली किताब था जिसमें सदाचार की कथा थी। वे जन-जन की वैयक्तिक समस्याओं के समाधान में तत्पर तो दिखाई देते थे, किन्तु मनसा अध्यात्म-साधना में तल्लीन रहते थे। ५. एकता प्रयास पापी व्यक्ति कलहप्रिय होता है तो निष्पाप व्यक्ति एकता, समन्वय व परस्पर प्रेम का प्रचारक व संस्थापक । मुनिश्री गुत्थियों को सुलझाना जानते थे, उलझाना नहीं। वे भिन्न तटों पर खड़े व्यक्तियों को अपने सदुपदेश रूपी सेतु से मिलाना चाहते थे । वे कैंची नहीं, सई थे, जो दरार ५ न्याय्यात्पयः प्रविचलन्ति पदं न धीराः। -(नीतिशतक, ८४) ६ प्रिया न्याय्या वृत्तिः - (नीतिशतक, २८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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