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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणे : ३६४ : इस भाषायी धरातल पर अब हम श्री जैन दिवाकरजी महाराज को देखें। वे हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, अर्धमागधी आदि प्राचीन साहित्यिक भाषाओं के जानकार तो थे ही और उनका जैन साधु होने के कारण पद-विहारी होने से मालवी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, भीली आदि लोक बोलियों एवं भाषाओं पर भी अच्छा अधिकार था। यही कारण है, कि उनके प्रवचन जितने विद्वदगम्य होते थे, उतने ही लोकगम्य भी थे। उनके प्रवचनों में प्राचीन भाषाओं का पाण्डित्य, वर्तमान भाषाओं की जीवन्तता और लोक-बोलियों की मधरता पग-पग पर थिरकती मिलती थी। प्रत्येक श्रोता यही अनुभव करता था कि यह तो हमारी भाषा में कह रहे हैं और हमारे विचारों को साकार बना रहे हैं। जो बात श्री जैन दिवाकरजी महाराज के प्रवचनों के लिये लागू होती है, वही उनके साहित्य के लिये भी चरितार्थ है । यह कभी संभव नहीं कि किसी साहित्य मनीषी का कथन अलग हो, और लेखन अलग हो । 'जैसा कथन-वैसा लेखन' यह उक्ति संपूर्ण साहित्य में प्रतिबिंबित होती है। उन्होंने विद्वत्ता प्रदर्शित करने के लिये साहित्य नहीं लिखा, उन्होंने यश कामना के लिये साहित्य नहीं लिखा और न अपना स्मारक बनाने या जनता की जिह्वा पर अपने नाम का उल्लेख कराने तथा चढ़ाये रखने के लिये साहित्य लिखा । किन्तु उनका लक्ष्य था, मानव को उसके जीवन-कर्तव्य का बोध कराना, संस्कृति का परिचय देना नीति और अध्यात्म को जनता की बोली में जनता में वितरित करना। यही कारण है कि पूज्य जैन दिवाकरजी महाराज ने जन-भाषाओं को अपने साहित्य की भाषा बनाया। उन्होंने अपने साहित्य के लिए उन्हीं भाषाओं को आधार बनाया, जिनको कि जनता सरलता से समझती थी। इसीलिये उनके साहित्य में हिन्दी के अतिरिक्त मालवी, मेवाड़ी, मारवाड़ी के प्रचलित शब्दों की अपूर्व छटा देखने को मिलती है। ये शब्द इस रीति से यथास्थान प्रयुक्त किये हैं कि जिससे वह साहित्य शब्दों का गुलदस्ता बन गया है। मालव का सामान्यजन पढ़े, तो वह भी उतना ही रस-विभोर होगा, जितना मेवाड़ी या मारवाड़ी। महिलायें पढ़े तो वे भी बिना कुछ समझाये समझ लेंगी कि इस ग्रन्थ में क्या कहा जा रहा है ? यह कार्य किसी एक भाषाविद के द्वारा नहीं किया जा सकता है कि उसका साहित्य जनप्रसिद्ध हो । उसका अच्छे से अच्छा साहित्य तभी इतर जन समझ सकेंगे, जब या तो उस भाषा में अनुदित किया गया हो या कोई समझाये । लेकिन ऐसा होने पर भी सफल साहित्य और उसके कर्ता के लिए प्रसिद्धि नहीं मिलती है और मिलती भी है तो एक सीमित दायरे में ही । लेकिन जो जन्मजात साहित्यिक प्रतिभा के धनी होते हैं, वे भाषा की कारा में भावों को नहीं बाँधते । वे आम आदमी तक स्वयं पहुँचते हैं और जिस भाषा-बोली में वह समझता है, उसी में समझाते हैं। श्री जैन दिवाकरजी महाराज ऐसे ही साहित्यकार थे। जैन दिवाकर साहित्य का शैली-पक्ष भाषा के साथ शैली का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है और शैली मी लोक-मानस की अभिरुचि के अनुसार निर्मित होती है। प्राचीन काल से गद्य और पद्य ये दोनों शैलियाँ साहित्य के क्षेत्र में प्रचलित रही हैं । अधिकांश प्राचीन भारतीय साहित्य पद्य शैली में लिखा गया है और उसके बाद भी अपभ्रश और देशी भाषाओं के जमाने में भी पद्य की प्रधानता रही है। प्राचीन हिन्दी का आदि साहित्य भी पद्य शैली में लिखा हुआ मिलता है । लोक-भाषाओं के प्रारम्भिक युग में भी पद्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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