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________________ :३६३ : साहित्य में सत्यं शिवं सुन्दरं के संस्कर्ता य * साहित्य में सत्यं शिवं सुन्दरं के संस्कर्ता * श्री जैन दिवाकरजी महाराज * ४ श्री महेन्द्र मुनि 'कमल' (प्रसिद्ध कवि, वक्ता और गायक) युग संत श्रद्धेय श्री जैन दिवाकरजी महाराज की प्रसिद्धि, प्रसिद्धवक्ता के रूप में है और प्रायः यह समझा जाता है कि वे सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र साधक थे, श्रमण थे, संत थे, धर्मोपदेशक थे । विशेष कर इसी पक्ष पर भार देकर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन भी किया जाता है । लेकिन उन विश्व पुरुष ने साहित्यिक दृष्टि से क्या किया और क्या नहीं और इस क्षेत्र में उनकी क्या देन है ? इसकी ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया हो और यदि ध्यान भी गया हो, तो अभी तक कोई व्यवस्थित एवं वस्तुपरक अध्ययन नहीं हो पाया है। प्रस्तुत निबन्ध में उनके साहित्यिक पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। यह प्रयास विहंगावलोकन मात्र है। यदि इससे किन्हीं ने प्रेरणा ली, तो संभव है, कि कोई न कोई उनके समक्ष साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन करके समग्र विशेषताओं का दिग्दर्शन करायेगा और ऐसा संभव हो सका तो यह विशेष प्रसन्नता की बात होगी। जैन दिवाकर साहित्य का भाषा-पक्ष भाव, भाषा, शैली और अभिधेय-उद्देश्य यह चारों साहित्य के अंग हैं। भाव साहित्य की आत्मा है, भाषा और शैली उसका शरीर और अभिधेय-उद्देश्य उसकी कसौटी है। इस कसौटी के द्वारा साहित्यकार का मूल्यांकन किया जाता है कि उसने जिस उद्देश्य के लिये प्रयत्न किया है, उसकी अभिव्यंजना यथातथ्य रूपेण अवतरित हुई या नहीं। माव और अभिधेय अमूर्त है, और भाषा मूर्त तथा भाव व उद्देश्य बिना भाषा-शैली के ज्ञात नहीं होते हैं। उन्हें भाषा का आधार आवश्यक है। अतएव श्री जैन दिवाकरजी महाराज के साहित्य की विशेषताओं को बतलाने के पूर्व उसके भाषायी-पक्ष पर दृष्टिपात करते हैं। साहित्य की भाषा-परम्परा पर दृष्टिपात करने से यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि भारतीय साहित्य की आदिकालीन भाषायें प्राकृत, पाली, अर्धमागधी आदि उस युग की लोक-भाषायें थीं। मध्य काल में उन प्राकृत ग्रन्थों पर टीकायें आदि लिखने और नव साहित्य के आलेखन के लिये संस्कृत भाषा को अंगीकार किया गया। इसके बाद अपभ्रंश की परंपरा चली और अपभ्रंश के बाद के युग में देशी भाषाओं में साहित्य की रचना होने लगी। वर्तमान में विशेष तथा हिन्दी और गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ आदि प्रांतीय भाषाओं में साहित्य का निर्माण हो रहा है। इस भाषा परिवर्तन के कारण थे। जीवन की अस्त-व्यस्तता एवं आवागमन के साधनों की कमी के कारण संपर्क टूटता रहा । जिससे अपने समय से पूर्व की भाषायें विद्वद् भोग्य तो अवश्य रहीं, लेकिन सामान्यजन उसके भावावबोध से वंचित रहने लगा। वह सुनने के साथ ही भक्ति विभोर एवं श्रद्धाभिभूत हो जाता था। लेकिन अर्थावबोध न होने से कोरा रह जाता था। उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। यही कारण है कि प्रत्येक युग में अन्य भाषाओं में निष्णात और पंडित होने पर भी साहित्यकारों ने भाषा के प्रति बिना किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के समकालीन प्रचलित भाषा में हितमित-सत्य-पथ्य को उपस्थित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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