SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ व्यक्तित्व को बहुरंगी किरणें ३१४ महाराज ने मानवीय आत्मा के दर्शन किये। उसमें बैठी हुई कुरीतियों, कुवासनाओं और कुवृत्तियों को परिमार्जित करने के लिये प्रस्थान किया । वे जहाँ भी गये, वहीं सर्वप्रथम मानव-मानव के बीच जुदाई पैदा करने वाले कारण अहं और उसके निमित्त धन के त्याग की सीधी-साधी भाषा बोली कि - " आप श्रीमन्त हैं और श्रीमन्ताई के अहम् में पड़ौसी को भी नहीं जानते तो यह प्रदर्शन व्यर्थ है । यदि श्रीमन्त हैं, तो समय पर परमार्थ कर लो ! जिससे स्वार्थ भी सध जाये । यदि ऐसा भी नहीं कर सकते, तो उन रीति-रिवाजों की लीक न डालो जो दिनों-दिन बढ़ती हुई साधारण व्यक्ति को अपने जाल में जकड़ लेते हैं। उन कुप्रदर्शनों को बन्द कर दो जो प्रजा के नैतिक पतन के कारण हैं ।" इसी प्रकार समय-समय पर और भी अनेक प्रकार से मानव को उसके कर्त्तव्य का बोध कराते हुए जब और जहाँ कहीं भी किसी कुरीति-रिवाजों को देखते, तो उसके उन्मूलन के लिये प्रवचनात्मक उपदेश आदेश देकर सन्मार्ग का दर्शन कराते थे । पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज का युग अंधश्रद्धा बहुल था। अंधविश्वासों के वश होकर न मालूम कितने भैरों-भवानी को पूजता रहता था। इसे पूजने के निमित्त बिना किसी विचार के वह सब करने में तत्पर हो जाता था, जो मानवता को कलंकित करता था। ऐसे और भी अनेक कारण थे, जिससे मानव समाज अपने आप में अशांत था । पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने इन सब का समाधान किया । दिशा दी और दशा बदल दी । यही कारण है कि समय का अन्तराल बढ़ने पर भी उन्हें एक समाज सुधारक के रूप में माना जाता है। वे जहाँ भी गये, वहीं भिक्षा मांगी बुराइयों की और प्रतिदान में दिया मानवीय, ओज, तेज, आस्था, विश्वास ! समग्र आयामों का समवाय पूर्वोक्त के अतिरिक्त सहस्र रश्मि पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज के और भी अनेक आयाम आलेख्य हैं । लेकिन यहाँ पर एक महान् जैनाचार्य के निम्नलिखित बोलों के पुण्य स्मरण होते ही विराम लेना उचित है- । "गुन समुद्र तुम गुन अविकार कहत न सुर गुरु पावैपार ॥ अतएव समग्र आयामों का पंजीकरण करके इतना ही प्रस्तुत करते हैं कि उनका व्यक्तित्व जागतिक था। किसी एक समाज या क्षेत्र अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं था। वे भ्रमण थे, उनके कृतित्व में ग्रन्थि नहीं थी और ग्रन्थि हो भी कैसे सकती थी। जब वे स्वयं ग्रन्थि का भेद न करके निर्ग्रन्थ हुए थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति की मौलिकता के अनुरूप जहर पिया, अमृत बांटा। उन्होंने सीमा में रहकर अनहद काम किया और जो किया, वह चिरस्थायी है। इस दृष्टि से उनके व्यक्तित्व को समग्र क्रान्ति के लिये समर्पित कहा जाये, तो सम्भवतः हम उनके सही मूल्यांकन के निकटतम पहुँचने में आंशिक रूप से सफल हुए हैं। उन्होंने अपनी चारित्रिक निर्मलता पूर्वक जनपद विहार करके अंध-विश्वासों, रूढ़ियों और परम्पराओं में धंसी मानवता को निर्मल बनाया है। इस समग्रता का अवलोकन करने के पश्चात् भी यदि हमारी अंजलियाँ नहीं उठती हैं । साथ ही उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रेरणा नहीं लेते हैं, तो यह हमारा दुर्भाग्य माना जायेगा । क्या हम अभागे रहे ! नहीं, तो आइये! अपने दिये से प्रकाश लें और प्रयास करें, उस विश्व को प्रकाश में लाने का, जो अँधेरे, अनिश्चय और संदेह से परावृत्त होकर क्लान्त भ्रांत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy