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________________ : ३१३: वह आयामी व्यक्तित्व के धनी..." श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ जन्मजात 'विरागी' "पूत के लक्षण पालने में ।" माता-पिता ने बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया बड़ा किया और योग्य वय सम्पन्न होने पर विवाह सूत्र में बाँध दिया। इस आशा से कि विराग का बिरवा राग के वेग में अपने आप ही निर्मूल हो जायेगा । उन्होंने तो अपने विचारों से ठीक ही किया था कि बड़े-बड़े महर्षि भी रमणी की रमणीयता में रम गये, तो यह युवा दारा की काश को कैसे उलांघ सकता है ? लेकिन यौवन की अमराई में राग की कोयल नहीं कूजी सो नहीं फूजी । अन्त में तोड़ सकल जग द्वन्द फन्द आतमलीन कहाये । राग हारा और विराग जीता। आपश्री की आकांक्षा तो यही थी कि पत्नी भी साथ में प्रव्रज्या ले और प्रथम मिलन के अवसर पर भी यही भावना प्रदर्शित की थी। लेकिन पत्नी नहीं समझी। कारण यही था कि तब काल परिपाक नहीं हुआ था जिससे विरोध की बेल तो बढ़ाती रही, परन्तु विराग के बीज को नहीं बोया और जब समय आया, तो सचोट बोलों ने विचार बदल दिये । दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल गई। वे बोल है "हमारा सांसारिक सम्बन्ध तो जन्म-जन्मान्तर में कितनी ही बार हुआ होगा, परन्तु धार्मिक सम्बन्ध नहीं हुआ और यह मनुष्यभव दुर्लभता से ही प्राप्त होता है, अतएव जैसे मैं साधु बन गया है, वैसे तुम भी साध्वी हो जाओ, क्षणिक सांसारिक सुख को सर्वस्व मानकर अमूल्य और दुर्लभ मनुष्य जीवन को गंवा नहीं देना चाहिये। संसार असार है। उसमें कोई किसी का सदा का साक्षी नहीं और आत्म-कल्याण जो कि मनुष्य जीवन का वास्तव में सार्थक्य माना जाता है, वह भी उसमें नहीं है। परलोक की बात तो दूर रही, परन्तु इसी लोक में ही माता-पिता, भाई-बहिन, पति, पुत्र कोई सहायक नहीं होते। इसलिये योग्य लगे तो मेरा कहना मानकर तुम भी साध्वी बन जाओ।" इस सारगर्भित कथन का परिणाम यह हुआ कि जो बात वर्षों पहले सम्भव हो जानी चाहिये थी वह अब सम्भव हुई। पत्नी भी पति की अनुगामिनी बन गयी। धार्मिक सम्बन्ध जोड कर अटूट आत्मीय सम्बन्ध जोड़ लिया। " समाज-सुधारक जैन मुनि की दीक्षा का मुख्य ध्येय आत्म-साधना है। लेकिन जिस क्षण यह दीक्षा ली जाती है, उसी समय से व्यक्ति के साथ सामाजिक निर्माण, धार्मिक प्रभावना और धर्म सेवा के कार्य भी बिना किसी प्रकार की प्रतिज्ञा लिये अपने-आप जुड़ जाते हैं। या फिर यों कह सकते हैं कि जैन श्रमण अपनी चर्या के द्वारा जो आदर्श अभिव्यक्त करते हैं, वह समाज धर्म प्रभावना के रूप ले लेते हैं। अपनी पद-यात्रा और पंच महद्वातों का बाना पहनकर ग्राम-ग्राम को उद्बोधन देते हुए, जो जागृति का शंखनाद करते हैं उससे उनकी निस्पृह समाज सेवा सदैव स्मरणीय बनी रहती है। पूज्यश्री जैन दिवाकरजी महाराज भी ऐसे ही एक सन्त शिरोमणि थे। उन्होंने अपने प्रव चनों के माध्यम से धर्म-बोध कराया, समाज को कर्त्तव्य का मान कराया और उसकी सही सार्थकता बतलाई, तो उससे ऐसा वातावरण बना कि पहले जन जैन बना और जैन बनकर अपने सामाजिक दायित्व की ओर अग्रसर हुआ । मानवाकृति धारण करने वाले प्राणियों का चेतना का संकलन है। यह संकलन यों ही गंवा देने के कित करने का किसी को अधिकार है। इसी सूत्र को समूह समाज नहीं है, लेकिन समग्र जीवन्त लिये प्राप्त नहीं हुई है और न ही इसे कलंध्यान में रखकर पूज्य श्री जैन दिवाकरजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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