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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहरंगी किरणे : ३०६ : बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी गुरुदेव श्री जैन दिवाकरजी श्री अजितमुनि 'निर्मल' मारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है-'निर्ग्रन्थ श्रमण साधना' । इस निर्ग्रन्थ श्रमण साधना के आराधक वे अनिकेतन अनगार-सन्त-महात्मा हैं, जो 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के प्रति सर्वात्मना समर्पित हैं । ये सन्त-महात्मा अपनी महिमामयी चर्या एवं वाणी, आचार और विचार द्वारा युगबोध कराते रहे हैं । अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से युगपुरुष के विरुद से विभूषित हुए हैं तथा अशन-वसन, वासन-आसन-सिंहासन, धन-धान्य से विहीन होने पर भी राजा से लेकर रंक तक के आदरणीय रहे हैं और हैं। उनमें से हम यहाँ एक ऐसे ही युगसन्त के व्यक्तित्व के आलेखन का प्रयास कर रहे हैं । हमारे प्रयास के केन्द्र बिन्दु श्रद्धास्पद महामुनिप्रवर हैं-'श्री जैन दिवाकरजी महाराज' । यद्यपि नामतः वे 'मुनिश्री चौथमलजी महाराज' कहलाते थे, लेकिन जब उनकी जीवन-पोथी के पन्ने लटते हैं। मानवीय मानस के स्वरों को सुनते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अहनिश जिन सिद्धान्तों के अनुरूप जन-समाज के कल्याण की कामना से ओतप्रोत रहने के कारण वे भावतः "जैन दिवाकर" थे और जैन दिवाकर शब्द सुनते ही हमारे मस्तक उस युगपुरुष के प्रति श्रद्धा, भक्ति, वन्दना अर्पित करने के लिए स्वतः स्वयमेव नत हो जाते हैं। युगपुरुष अपने अध्यवसाय, प्रयत्न पुरुषार्थ से स्व-पर-जीवन का निर्माण करते हैं। जन्म कब हुआ, कहाँ हुआ, माता-पिता कौन थे, पारिवारिक-जन कौन-कौन थे? इत्यादि उनकी महिमा के साधन नहीं हैं और न वे इनका आश्रय लेकर अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते हैं। उनका लक्ष्य होता है-'स्ववीर्य गुप्तः हि मनो प्रसूति' । श्री जैन दिवाकरजी महाराज ऐसे ही एक यूगपूरुष हैं, उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहु आयामी है और जिस आयाम से भी हम उनका दर्शन करते हैं, मूल्यांकन करते हैं, तो उसमें एक अनूठेपन, दीर्घदशिता, लोकमंगल आदि-आदि की प्रतीति होती है। आइये ! आप भी उन आयामों में से कुछेक पर दृष्टिपात कर लें। साम्प्रदायिक वेष : असाम्प्रदायिक वृत्ति श्री जैन दिवाकरजी महाराज संयम-साधना के लिए स्थानकवासी जैन-परम्परा में दीक्षित हुए थे । अतः उनको स्थानकवासी जैन-परम्परा का सन्त कहा जाता है। लेकिन उनका मानस, विचार, वृत्ति इस वेष तक सीमित नहीं थी। उनके लिए वेष का उतना ही उपयोग था जितना हमआपकी आत्मा के लिए इस वार्तमानिक शरीर का। उनकी दृष्टि तो इस वेष से भी परे थी। वे "गणाः पूजा स्थानं न च लिगं न च वयः" के हिमायती थे। इसलिए उनमें वेष का व्यामोह हो मी कैसे सकता था ? समाज और सम्प्रदाय दोनों का समान आशय है। लेकिन दोनों के दृष्टिकोण में थोड़ा-सा अन्तर है। समाज विविध आचार-विचार प्रणालियों वाले मनुष्यों का समुह है और सम्प्रदाय एक प्रकार के आचार-विचार, श्रद्धा-विश्वास वाले मानवों का समूह । इस प्रकार समाज और सम्प्रदाय में व्याप्त-व्यापक की अपेक्षा भेद है, किन्तु लक्ष्य एक है। तब बहुमत की उपेक्षा करके सिर्फ इने-गिनों मानवों के समूह को अपने कृतित्व के लिए चन लेना और उसी को उपादेय मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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