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________________ : ३०५ : संतों की पतितोद्धारक परम्परा.... श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ हृदय-परिवर्तन करना बहुत कठिन व महत्वपूर्ण कार्य है। मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने उन पतितों के उद्धार का भी प्रयत्न किया । उसके बाद तो जेलों में जाकर बंदियों को उपदेश देने का कार्य अनेक मुनियों ने किया, पर अब से ५१ वर्ष पहले इस कार्य का श्रीगणेश मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने किया । जैन दिवाकर ग्रन्थ के पृष्ठ १८५ में लिखा है-"वि० सं० १९८४ की घटना है, चित्तौड़ के एक मजिस्ट्रेट को बंदियों की दशा देखकर दया आयी और मुनिश्री की प्रभावशाली वाणी से उनके जीवन में सुधार हो इसलिए निवेदन किया । महाराजश्री ने कैदियों को जो उपदेश दिया उससे उन सभी के हृदय में पश्चात्ताप की अग्नि जलने लगी। साश्रु नयन उन सबने संकल्प व्यक्त किया कि हम भविष्य में ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे हमारा तथा किसी दूसरे का अपकार हो। देवास में भी जेल में कैदियों को आपने उपदेश दिया एवं पाप-कार्यों के त्याग करवाये । पालनपुर के नवाव आपसे प्रभावित होकर मूल्यवान दुशाले आदि कुछ भेंट करना चाहते ये तो आपने उनसे कहा कि यदि आप भेंट देना ही चाहते हैं, तो शिकार, शराब व मांसाहार का त्याग करें। आपकी निस्पृहता से प्रभावित होकर उन्होंने उसी समय इन वस्तुओं का त्याग कर दिया। इसी तरह धानेरा के नवाब के दामाद जबरदस्तखाँ ने भी आपके उपदेश से प्रभावित होकर कई जानवरों के शिकार न करने की प्रतिज्ञा स्वीकार की। समाज में मोचियों को काफी नीचा माना जाता है। उनको कोई छते नहीं थे क्योंकि वे पशुओं की खाल का कार्य करते हैं तथा मांस-मदिरा पीते हैं। उनके घरों में चमड़े की गन्ध बनी ही रहती है । आपने उन मोचियों को भी शराब, मांस, जीवहिंसा आदि दुर्व्यसनों से मुक्त किया । गंगापुर के मोचियों ने आपकी वाणी सुनकर हमेशा के लिए मांस-मदिरापान का त्याग कर दिया। रेलमगरा के ६० परिवारों ने मांस-मदिरा का त्याग किया । इसी तरह अनेक स्थानों में उन्होंने केवल मांस-मदिरा का त्याग ही नहीं किया वरन् जैनधर्म को स्वीकार कर, सामायिक-प्रतिक्रमण आदि धार्मिक क्रियायें भी करने लगे। चमार भी बहुत नीची जाति के माने जाते हैं। पर आपके प्रभाव से ६० गाँवों के चमारों ने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया। इसी तरह कसाई, खटीक, भील आदि निम्न श्रेणी के तथा पतित माने जाने वाले लोगों को दुर्व्यसनों से मुक्त कर आपने हजारों व्यक्तियों, परिवारों का उद्धार किया। भगवान का जो पतित पावन विशेषण है उसे मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने अपने जीवन में सार्थक करके पतितोद्धारक बने । उनके अनुकरण यदि हमारे अन्य साधु-साध्वी करें तो लाखों व्यक्तियों का उद्धार हो जाय व जैन शासन की बड़ी प्रभावना हो। परिचय एवं पता : जैनधर्म, इतिहास एवं साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् अनुसंधाता तथा लेखक।। पता-नाहटों को गवाड़, बीकानेर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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