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________________ : ३०१ : संतों की पतितोद्धारक परम्परा... श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ आसपास का वातावरण और दूसरों के सम्पर्क से उसमें अच्छाइयों और बुराइयों का प्रगटन होता है। अच्छे-बुरे संस्कार पनपते और बढ़ते रहते हैं। आगे चलकर जिस गुण या दोष का दृढ़ीकरण हो जाता है, अधिक पुष्टी व प्रोत्साहन मिलता है उसी के कारण उसका जीवन सदाचारी व कदाचारी, दुष्ट व शिष्ट, पापी व धर्मी बन जाता है। आसपास के वातावरण व संगत के प्रभाव से बहुत बार मनुष्य की सात्विक वृत्तियाँ दब जाती हैं और बुरी वृत्तियाँ उभर आती हैं । पर अच्छी वृत्तियों का एकदम लोप नहीं होता, वे छिपी हुई भीतर विद्यमान रहती हैं। इसलिए अच्छे वातावरण और संगति से वे पुनः जागृत की जा सकती हैं और सन्त-जन यही काम करते हैं। सन्तों का प्रभाव दो कारणों से अधिक पड़ता है। एक तो उनका जीवन पवित्र होने से बिना कुछ कहे भी उनके दर्शन मात्र से दूसरों के मन में सद्भाव जागृत होने लगते हैं । वे जब उनके जीवन के साथ अपने जीवन की तुलना करते हैं, तो उन्हें आकाश-पाताल-सा अन्तर दिखाई देता है। अतः मन में प्रेरणा उठती है कि ऐसे सन्त-जन का सहयोग मिला है तो अवश्य ही कुछ लाभ उठाया जाय जिससे अपना जीवन भी ऊँचा उठ सके । दूसरा प्रभाव उनकी ओजस्वी व सधी हुई वाणी का पड़ता है क्योंकि उनके एक-एक शब्द के पीछे साधना मुखरित है । स्वाध्याय, ध्यान, तप और सद्भावनाओं के निरन्तर चिन्तन से उनके शब्दों में-वाणी में एक अजब-गजब की शक्ति उत्पन्न होती है जिसे सुनने वाले हृदय को वे शब्द बेधते चले जाते हैं। हृदय में एक कम्पन व आन्दोलन-सा होने लगता है। उस समय वह सन्तजन जो भी त्याग आदि के उपदेश देते हैं उसका बहुत गहरा असर होता है और वर्षों की बुरी आदतें एक क्षण में छोड़ देने की शक्ति और साहस श्रोता में टूट पड़ता है। बड़ा आश्चर्य होता है कि बहुत बार प्रयत्न करने पर भी बुरी आदतों और व्यवहारों को वह छोड़ नहीं पाया था, आज एकाएक उन्हें कैसे छोड़ दिया । इस तरह कल के पापी आज के धर्मी बन जाते हैं। मुनि श्री चौथमलजी ने भी मानव की कमजोरियों को बड़ी गहराई से पहचाना, उसके अन्तर में जो अच्छाइयाँ छिपी पड़ी हैं उनका निरीक्षण व अनुभव किया । बहुत बार के अभ्यास और आदतों के कारण जो मानव की सद्वृत्तियां सुप्त पड़ी हैं, गुप्त पड़ी हैं, दब गई हैं उनको पुन: प्रगट करने में सन्तों की वाणी जादू-सा काम करती है। मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने जो मानव-हृदय के पारखी थे । अपने हृदय की पुकार से आन्तरिक करुणा के श्रोत से जहाँ-जहां जिस-जिसमें जो-जो खराबियाँ देखीं उन्हें सुधारने का भागीरथ प्रयत्न किया। इसी के फलस्वरूप वे हजारों-हजारों व्यक्तियों को राजा से लेकर रंक तक के विविध प्रकार के मानव हृदयों को आन्दोलित करते, मथते और उसके फलस्वरूप जो नवनीत या सार-सर्वस्व उन्हें प्राप्त होता उनकी तेजस्वी मुख मुद्रा और तेजस्वी वाणी से अनेक व्यक्तियों ने चिरकालीन अभ्यस्त बुराइयों को तिलांजलि दी। मांसाहारियों ने मांस छोड़ा, मांस भक्षण न करने का नियम लिया। शराबियों ने शराब छोड़ी, शिकारियों ने शिकार करना छोड़ा। वेश्याओं तक के दिल में परिवर्तन हुआ। जिनके हाथ खून में लगे रहते थे, माँस खाना ही नहीं, बेचना जिनका व्यवसाय था उन कसाइयों, खटीकों आदि ने भी अपने बुरे कामों को छोड़ने का संकल्प किया। मोची आदि अनेक नीची गिनी जाने वाली जातियों में अच्छे संस्कारों का बपन हुआ। यह कोई मामूली चमत्कार नहीं है। एक भी व्यक्ति सुधरता है तो उसका परिवार कुटम्बी-जन और आसपास के लोग सहज ही सुधरने लगते हैं। जिस तरह कुसंगति से खराब वातावरण से मनुष्य में अनेक दोष व खराबियाँ आने लगती हैं। उसी तरह अच्छे वातावरण व संगति से उनमें सद्भावनाओं के गुल भी खिलने लगते हैं। यह जरूर है कि बुराइयाँ, खराबिया सहज हैं, अच्छाइयाँ कष्ट साध्य हैं। क्योंकि पानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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