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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३००: रहते हैं और हिंसा के निवारण में भी सदा प्रयत्नशील रहे हैं। उन्होंने पतितों के उद्धार में अपना जीवन लगाया व खपाया है । ऐसे ही उदात्त भावना वाले और कर्मठ धर्म-प्रचारक मुनिश्री चौथमल जी महाराज हए हैं जिनकी जन्म शताब्दी उनके शिष्यों और भक्तों के द्वारा बड़े जोरों से व अच्छे रूप में अभी वर्ष भर तक मनाई जा रही है। प्रत्येक व्यक्ति गुण और दोषों का पुंज है। अनेक अच्छाइयों और विशेषताओं के साथ उसमें कुछ बुराइयाँ व कमियाँ भी रहती हैं। पूर्ण गुणी तो परमात्मा माना जाता है। मनुष्य मात्र भूल का पात्र होता है, पर जो व्यक्ति भूल को भूल मान लेता है और उस मल को सुधारने व मिटाने की भावना रखता है, तदनुकूल पुरुषार्थ करता है। वह अवश्य ही दोषों को मिटाकर गुणों को अच्छे परिमाण में प्रगट कर लेता है। उस गुणी व्यक्ति द्वारा दूसरों के गुणों का विकास का प्रयत्न भी चलता रहता है जिससे उनके सम्पर्क में आने वाले हजारों व्यक्ति उनके ज्ञान और चारित्र से प्रभावित होकर जीवन में नया मोड़ लाते हैं । पापी से धर्मी बन जाते हैं, पतित से पावन बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति जन-जन के पूज्य और श्रद्धा के केन्द्र बन जाते हैं। जनता के लिए स्मरणीय व उपासनीय बन जाते हैं । मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने भी अपने जीवन में कुछ ऐसे विशिष्ट कार्य किये जिससे वे आज भी स्मरणीय बने हुए हैं। जैनधर्म अहिंसा प्रधान है । तीर्थंकरों ने जिस सूक्ष्मता के साथ अहिंसा सिद्धान्त का प्रतिपादन किया व साथ ही अपने जीवन में आचरित किया वह विश्वभर में अनुपम है, अद्वितीय है। जैन मुनियों को भी यथाशक्य उस महान् अहिंसा धर्म का पालन करना होता है। वे जब चारों ओर हिंसा का बोलबाला देखते हैं हिंसा का साम्राज्य उनके अनुभव में आता है, तो उनकी सहज करुणा प्रस्फुटित हो उठती है। उनकी अनुकम्पा उन्हें उद्वेलित करती रहती है जिससे हिंसा निवारण के प्रयत्न में उनकी गति-प्रगति होती है और बढ़ती जाती है। केवल जीवों को मारना ही हिंसा नहीं है उनको कटु वचन से क्षोभित करना भी हिंसा है । दूसरा चाहे मरे या न मरे, अपने मन में मारने का भाव लाना, कटुता एवं क्रूरता के परिणाम हो जाने से भी हिंसा होती है। और इस दृष्टि से देखा जाय तो सभी में हिंसा का भाव कमबेसी रूप में है ही । और उसके निवारण का प्रयत्न करना भी उतना ही आवश्यक है, अन्यथा यह विश्व टिक नहीं सकता। एक-दूसरे के वैर-विरोध और हिंसा-प्रतिहिंसा में संहार-चक्र से सब दुनिया समाप्त हो जायेगी। पापों और दोषों से मनुष्य का जो पतन हो रहा है उससे बचाया न जाय तो संसार पापियों से भर जायगा, दोषों से आपूरित हो जायगा । इसलिए सन्तजन सदा अपने उपदेशों से पतितों का उद्धार करते रहे हैं। हमें धर्ममार्ग पर प्रवर्तित करते रहे हैं। उन गिरे हुओं को ऊँचा उठाने में प्रयत्नशील रहे हैं और इसी प्रयत्न का सुपरिणाम है कि भूले-भटके अज्ञानी और पापी प्राणियों का उद्धार सदा होता रहा है व होता रहेगा। क्योंकि महापुरुषों की वाणी सदा सात्विक प्रेरणा देती रहती है। जैन मुनियों का तो जीवन बहुत ही आदर्श एवं उच्च रहता है । अतः उनके सम्पर्क में आने वालों पर उनका सहज और गहरा प्रभाव पड़ता है । मुनिश्री चौथमलजी महाराज भी ऐसे ही उच्च आदर्शों का जीवन जीने वाले थे। उनकी वाणी में चमत्कारिक प्रभाव था; कथनी के साथ करनी भी तदनुरूप थी। ज्ञान व चारित्र का सुमेल था, हृदय में अनुकम्पा और करुणा के भावों की किलोलें उठती रहती थीं, लहरायमान होती रहती थीं। इससे अनेक स्थानों में अनेक व्यक्तियों ने सत प्रेरणा प्राप्त की और अपने जीवन को उच्च एवं आदर्श बनाया । दोषों में कमी की व गुण प्रगटाये। जन्मते ही कोई प्राणी पापी व दुष्ट नहीं होता; पूर्व संस्कार अवश्य कुछ काम करते हैं। पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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