SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :२६७ : युग-पुरुष जैन दिवाकरजी महाराज श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ | पर कहा था-"विभिन्न धर्मों के अनुयायी होने के कारण द्वेष करने की क्या आवश्यकता है ? संसार का कोई भी धर्म द्वेष करना नहीं सिखलाता फिर भी धर्म के नाम पर द्वष किया जाता है । वस्तुतः धर्म की आड़ लेकर द्वष करना अपने धर्म को बदनाम करना है।" हम देख चुके हैं कि धर्म के नाम पर जितना अधिक अत्याचार और बिखराव फैला है, पार्थक्य को पोषण मिला है उतना किसी वस्तु के नाम पर नहीं। एतावत जैन दिवाकरजी महाराज ने कहा "धर्मात्मा बनो, धर्मान्ध न बनो।" नारो-शक्ति का अवतार जैन दिवाकरजी महाराज ने नारी-समाज के उत्थान व जागरण की ओर विशेष ध्यान दिया। एक बार अपने प्रवचन में उन्होंने फरमाया था-"बहिनो ! तुम अपने तेज को प्रकट करो, अपनी शक्ति को पहचानो । जिसने बलवान और शूरवीर पुरुषों को जन्म दिया है, वे अबला नहीं हो सकतीं। तुम शक्ति का अवतार हो । तुम्हारी आत्मा में अनन्त बल है।" उन्होंने स्त्री को पृथ्वी के समान क्षमाशील होने की कामना की, ताकि घर का कलह-विग्रह शान्त हो । पत्नी की गरिमा इस बात में है कि वह अपने दुराचारी पति को भी सदाचारी बनाये। इसमें सन्देह नहीं, यदि नारी अपनी महिमा-गरिमा को पहचाने तो कोई उसका शोषण नहीं कर सकता, कोई उसे भोग-विलास की सामग्री नहीं बना सकता । वेश्यावृत्ति को उन्होंने अत्यधिक सावद्य एवं अवधोरित कर्म माना था और उसका समूलोच्छेदन करने का बीड़ा उठाया था। मुनिश्री ने देख लिया था कि वेश्यावृत्ति मानव-जाति पर एक कलंक है । वेश्या का जीवन अपमान, घृणा, निन्दा, तिरस्कार, उपेक्षा का जीवन है । भला ऐसा घृणित अपमानित, तिरस्कृत, उपेक्षित जीवन जीना कौन नारी चाहेगी ? उन्होंने वेश्याओं के स्वाभिमान को जगाया- उनके भीतर छिपी गरिमाशील नारी को जगायासं० १९६६ में जहाजपुर पहुंचकर मुनिश्री ने विवाहादि अवसरों पर आयोजित वेश्या-नत्य को बन्द करा दिया। इस पर कुछ वेश्याओं ने इसे अपनी रोटी-रोजी की विकट समस्या समझा और मुनिश्री से शिकायत की कि हमारी तो जीविका ही जाती रही। इस पर उन्होंने वेश्याओं को यों उद्बुद्ध किया "बहनो ! नारी जाति संसार में देवीस्वरूप होती है। उसका पद ममतामयी माता और स्नेहशील बहन जैसा गौरवशाली होता है। ऐसा महत्वपूर्ण पद पाकर कुत्सित कर्म करना, नृत्य-गान . करना नारी जाति के लिए कलंक है । इस कलंकित जीवन को त्यागकर सात्विकवृत्ति धारण करो और नारीत्व की महिमा बढ़ाओ।" परिणामतः सं० १९८० में पाली में उनके प्रवचनों से अनुप्रेरित होकर 'मंगली' और 'बनी' नाम की वेश्याएं सदाचारी, शीलवान बन गई । 'सिणगारी' ने पति-व्रता-जीवन अपना लिया । सं० २००५ में जोधपुर की 'पातरियाँ' इस विघृणित धन्धे को छोड़कर शीलमय तथा मर्यादित जीवन व्यतीत करने लगीं। यह था उनकी देशना का प्रभाव । परिग्रहवत्ति व्यापारी वर्ग को भी उन्होंने आचार-विचार की उच्चता से अवगत किया। उन्होंने अन्याय से, धोखाधड़ी से, मिलावट से, कम तौलने से, चोरबाजारी से अर्थोपार्जन को कभी भी उचित नहीं ठहराया। "सच्चा श्रावक कभी अन्याय से धन कमाने की इच्छा नहीं करता। श्रावक बनने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy