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________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २६६ : अवदान : ___ एक युगपुरुष के रूप में जैन दिवाकरजी महाराज का सबसे बड़ा योगदान जैन-सम्प्रदायों को एक मंच पर समासीन करना था, भेददृष्टि समाप्त कर स्वस्थ दृष्टि उत्पन्न करनी थी । मतवैभिन्य के स्थान पर मतैक्य स्थापित करना था। जातीय तथा साम्प्रदायिक भेदभाव की ऊँचीऊंची दीवारों को तोड़ने का काम करना था। यह एक युगान्तरकारी, क्रान्तिकारी प्रयत्न व परिवर्तन था। अतः हम उन्हें संघ-एकता का अग्रदूत कह सकते हैं । संघ-संगठन के नव-निर्माण में उनके योगदान को विस्मत नहीं किया जा सकता। एक महावीर जयंति के अवसर पर उन्होंने कहा था-"भगवान महावीर तो श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों के ही आराध्य हैं, देवाधिदेव हैं। एक ही आराध्य के अनुयायी होने से सभी भाई-भाई हैं फिर मतभेद कैसा?" बात सं० १९७२ की है। मुनिश्री जोधपुर में चातुर्मास पूर्ण कर ब्यावर आये थे । उनके दीक्षा-गुरु कविवर श्री हीरालालजी महाराज भी वहाँ मौजूद थे। उन दिनों स्थानकवासी सम्प्रदाय भिन्न वर्गों में विभक्त था । सनातनधर्म हाईस्कूल में जैन दिवाकरजी महाराज ने 'प्रेम और एकता' पर ओजपूर्ण भाषण देकर ब्यावर संघ में एकता का बीजारोपण किया। उसके कई वर्षों बाद सं० २००६ में वहीं नौ सम्प्रदायों का-उनके प्रमुख सन्तों का सुखद मिलन हुआ । सभी अपने पूर्वपदों व पूर्वाग्रहों को छोड़कर संघ के एक महासागर में विलीन हो गये। साम्प्रदायिक एकता मानो उनके जीवन का एक मिशन था। संघ की एकता को सुदृढ़ करने, उसे प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने एक बार कहा था-(i) समस्त प्रान्तों में विचरण करने वाले साधु-साध्वियों का एक स्थान पर सम्मेलन हो । (ii) साधुओं का समाचारी और आचार-विचार प्ररूपण एक हो। (iii) स्थानकवासी संघ की ओर से प्रमाणभत श्रेष्ठ साहित्य का प्रकाशन हो। (iv) तिथियों का सर्वसम्मत निर्णय हो। (v) एकदूसरे की निन्दा, अवहीलना, टीका-टिप्पणी, छिद्रान्वेषण-द्वषाक्षेप आदि कभी न हो। सं० १९८६ में अजमेर में वृहत्साधु-सम्मेलन हुआ । उसमें मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने अपने सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज के दोनों सम्प्रदायों को एक करने का मांगलिक कार्य किया। सं० २००७ में मुनिश्री ने कोटा में वर्षावास किया । वहीं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्य श्री आनन्दसागरजी महाराज दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि आचार्य श्री सूर्यसागरजी महाराज भी चातुर्मास कर रहे थे। श्री जैन दिवाकरजी महाराज के सत्प्रयासों से सभी प्रत्येक बुधवार को एक ही मंच से प्रवचन देते थे । समन्वयवादी दृष्टि सम्पन्न जैन दिवाकर जी महाराज ने इन भिन्न सम्प्रदायों में पारस्परिक सौहार्द की केसर-कलियाँ विकसित कर जनमानस को हर्षित किया था। देशना-गंगा : युगपुरुष की दृष्टि अपने युग की प्रत्येक समस्या पर पड़ती है, वह युग-नाड़ी की धड़कनें सजग होकर सुनता है। मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने अपने युग की दशाओं, परिस्थितियों तथा समस्याओं को भलीभाँति देखा-समझा था, जीव-जगत् पर गहराई से चिन्तन किया था। वह धर्मसहिष्णुता के पुरस्कर्ता थे। धर्म व जाति के नाम पर आपस में कोई द्वष-वैर न रखे । एक स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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