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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २६० : हैं । जैन-दर्शन का भेदविज्ञान यही कहता है। शरीर सीढ़ी है, आत्मा प्राप्य है, तन ससीम है, आत्मा अनन्त शक्तियों का भण्डार है। मुनिश्री ने स्पष्ट करते हुए कहा है-'आत्मा निर्बल होगी तो शरीर की सबलता किसी काम नहीं आयेगी। तलवार कितनी ही तेज क्यों न हो, अगर हाथ में ताकत नहीं है तो उसका उपयोग क्या है ?' इसी री में उन्होंने कहा है-'यह शरीर दगाबाज है, बेईमान और चोर है। यदि इसकी नौकरी में ही रह गया तो सारा जन्म बिगड़ जाएगा अतएव इससे लड़ने की जरूरत है । दूसरे से लड़ने में कोई लाभ नहीं, खुद से ही लड़ो ।' सन्त विदग्ध विचक्षण होते हैं, वे बिना किसी लिहाज के बोलते हैं, यहां हम मुनिश्री की साफगोई का स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं। मुनिश्री मानव-एकता के मसीहा थे । वे जीवन में ऐसे आधारों की खोज करते रहे हैं जिनका अवलम्बन कर मनुष्यों को एक किया जा सके । वे मानते रहे कि मनुष्य सर्वत्र एक है। अस्पृश्यता कृत्रिम है, निर्मूल है, निर्वंश है । इसीलिए उन्होंने अपने प्रवचनों में मानव-एकता के क्रान्तित्व को समाविष्ट किया, यथा-'धर्म पर किसी का आधिपत्य नहीं है। धर्म के विशाल प्रांगण में किसी भी प्रकार की संकीर्णता और भिन्नता को अवकाश नहीं है। यहाँ आकर मानवमात्र समान बन जाता है।' इसी तरह-"जैसे सूर्य और चन्द्र का, आकाश और दिशा का बंटवारा नहीं हो सकता उसी प्रकार धर्म का बँटवारा नहीं हो सकता। जैसे आकाश, सूर्य आदि प्राकृतिक पदार्थ हैं, वे किसी के नहीं हैं, अतएव सभी के हैं, इसी प्रकार धर्म भी वस्तु का स्वभाव है और वह किसी जाति, प्रान्त, देश या वर्ग का नहीं होता।" उन्होंने धर्म को एक जीवन्त-ज्वलन्त अस्तित्व माना है। अगर कोई धर्म लोकमंगल को अपना लक्ष्य नहीं बनाता है तो मुनिश्री की दृष्टि में वह मुर्दा और निष्प्राण है, उसका कोई महत्व नहीं है । यह बात उन्होंने अपने प्रवचनों में कई बार कही है, यथा-"जो धर्म जीवन में कुछ भी लाभ न पहुंचाता हो और सिर्फ परलोक में ही लाभ पहुंचाता हो, उसे मैं मुर्दा धर्म समझता हूँ। जो धर्म वास्तव में धर्म है, वह परलोक की तरह इस लोक में भी लाभकारी अवश्य है। इसी धर्म की वर्गहीनता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था-'धर्म किसी खेत या बगीचे में नहीं उपजता, न बाजार में मोल बिकता है। धर्म शरीर से-जिसमें मन और वचन भी गभित हैउत्पन्न होता है । धर्म का दायरा अत्यन्त विशाल है । उसके लिए जाति-बिरादरी की कोई भावना नहीं है । ब्राह्मण हो या चाण्डाल, क्षत्रिय हो या मेहतर कोई भी जाति का हो, कोई भी उसका उपार्जन कर सकता है । जैनों में भगवान् महावीर के बाद कोई भी जैन साध इस तरह की वर्गहीन क्रान्ति का आह्वान नहीं कर सका, ऐसा आह्वान जिसे जनता-जनार्दन ने आदरपूर्वक अपना सिर झुकाकार स्वीकार किया हो । ऐसा लगता है कि युग-युगों की गतानुगतिकता ने इस संत के अत्यन्त विनम्रभाव से चरण-वन्दना की हो। मुनिश्री चौथमलजी महाराज का चमत्कारों में कोई विश्वास नहीं था। वे किसी आकस्मिकता को दर्शन, या आस्था के रूप में नहीं मानते थे। कोई घटना हो, व उसमें कार्यकारण संगति तलाशते थे। उनकी विचक्षण प्रतिभा का आकस्मिकताओं और विसंगतियों से कोई सरोकार न था, आज अधिकांश साधु चमत्कार को ही अपनी सस्ती लोकप्रियता का आधार बनाते हैं, और उसी से अपनी प्रभावकता स्थापित करने का यत्न करते हैं, किन्तु चौथमलजी महाराज में यह बात नहीं है। चमत्कार उनके चरित्र का अंश नहीं है बल्कि दुद्धर साधना ही उन्हें हर क्षेत्र में प्रिय है। वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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