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________________ : २५६ : एक विचक्षण समाजशिल्पी | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ था-'मनुष्य जैसे आर्थिक स्थिति की समीक्षा करता है, उसी प्रकार उसे अपने जीवन-व्यवहार की समीक्षा करनी चाहिये। प्रत्येक को सोचना चाहिये कि मेरा जीवन कैसा होना चाहिये।' इस तरह वे चाहते है कि कोई भी व्यक्ति अन्धाधुध आँख मूंद कर न चले, किन्तु सद्विवेक से काम ले, और अपने जीवन तथा आचरण की यथोचित समीक्षा-मीमांसा करे। इतना ही नहीं, मनिश्री एक स्वप्नदृष्टा हैं, जिनकी भूमिका पर सदैव एक विदग्ध-ज्वलन्त सत्य प्रतिष्ठित रहता है । वस्तुतः कोई भी सत्य अपनी पूर्वावस्था में एक स्वप्न ही होता है। स्वप्न और सत्य के दो पृथक् संगीत हैं, जो एक महीन तार से परस्पर जुड़े हुए हैं, कुछ लोग सत्य का स्वप्न देखते हैं, और कुछ स्वप्न को सत्य का आकार देने के प्रयत्न करते हैं। वैज्ञानिक भी प्रखर स्वप्नदृष्टा होते हैं और महापुरुष भी। एक पार्थिव सत्यों की खोज के स्वप्न देखता है और उन्हें आकृत करता है, दूसरा सामाजिक अथवा दार्शनिक सत्यों को लोक-जीवन में संस्थापित और प्रकट करता है। मुनिश्री चौथमलजी महाराज एक मेधावी व्यवहार-पुरुष थे, उनकी कथनी-करनी एक थी। उन्होंने दूसरों को रोशनी या दिशा देने का अहंकार कभी नहीं किया वरन् इस तथ्य का पता लगाया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम दूसरों को रोशनी देना चाहते हैं, और खुद घनघोर अन्धेरों से घिरे हैं, इसीलिए ब्यावर की एक सभा में ८ सितम्बर को उन्होंने कहा था-'बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो प्रत्येक विषय पर तर्क-वितर्क करने को तैयार रहते हैं और उनकी बातों से ज्ञात होता है कि वे विविध विषयों के वेत्ता हैं, मगर आश्चर्य यह देखकर होता है कि अपने आन्तरिक जीवन के बारे में वे एकदम अनभिज्ञ हैं, वे "दिये-तले अन्धेरा" की कहावत चरितार्थ करते हैं।' उन्हें अपने राष्ट्र पर गर्व था । वे आत्माभिमानी थे। अपने गौरवशाली अतीत से उन्होंने अनवरत प्रेरणा ली । महापुरुषों के जीवन से उन्होंने अपने तथा समाज के जीवन को क्वणित-गंजित किया, और फिर इस तरह सम्पूर्ण वातावरण को अपनी विचक्षणता से झनझना दिया, सुगन्ध से भर दिया । वे चाहते थे एक समरस और संतुलित समाज, एक ऐसा समाज जिसकी परिरचना में मानवमात्र के मंगल का संगीत अनुगु जित हो । कहीं-कोई वैषम्य न हो, भेदभाव की दीवारें न हों, सब अपरम्पार बन्धुत्व के अट-अविच्छिन्न सूत्र में बन्धे हों, इसीलिए उन्होंने ब्यावर की ही एक सभा में ७ सितम्बर, १९४१ को कहा था-'आपका कितना बड़ा सौभाग्य है कि आपको ऐसे देश में जन्म मिला है, जिसका इतिहास अत्यन्त उज्ज्वल है और देश के अतीतकालीन महापुरुषों के एक से एक उत्तम जीवन आज भी विश्व के सामने महान् आदर्श के रूप में उपस्थित हैं। इन महापुरुषों की पवित्र जीवनियों से आप बहत कुछ सीख सकते हैं।' मुनिश्री ने धन की प्रभुता को कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने मनुष्य की सत्ता और महत्ता को सम्पत्ति से सदैव बड़ा माना; यह उनकी समग्र सामाजिक-नैतिक-सांस्कृतिक क्रान्ति का मेरुदण्ड है । उनकी दृष्टि में धन एक जड़ साधन है, साध्य मूलतः आत्मोत्थान है, लोकमंगल है, व्यक्तिमंगल है, इसीलिए उन्होंने कहा-'धन तुच्छ वस्तु है, जीवन महान् है। धन के लिए जीवन को बर्बाद कर देना कोयलों के लिए चिन्तामणि को नष्ट कर देने के समान है।' इसी तरह धन के विशिष्ट चरित्र पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने अपने किसी प्रवचन में कहा है-"धन की मर्यादा नहीं करोगे तो परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा । तृष्णा आग है, उसमें ज्यों-ज्यों धन का ईंधन झोंकते जाओगे, वह बढ़ती ही जाएगी। एक सनातन प्रश्न है आत्मा और शरीर के परस्पर सम्बन्ध का। दोनों जुदा हैं, एक नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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