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________________ :२२७: श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य | KO दिवाकर हमारे अस्तित्व में ढला हुआ है एक और आकार ! जो हमें, सौंपता है विशदता हमें अपनी अवस्थिति की चेतना से परिपूर्ण करता है ! अपनी शरीर सीमाओं से भी परे और विस्तृत स्वयं को महसूस करने लगते हैं। हमारी श्रद्धा का अनुकुम्भ है वह भरता है हममें अनुपमेयता ! हम एक-एक अतिदिव्य हो उठते हैं ऐसा अनूठा है वह आकार जो साकार नहीं फिर भी हमारे अंतस की गहराई में विद्यमान है। 'दिवाकर' क्या सार्थक नाम दिया है बीते हुए कल ने उसे ! आज भी वह सूरज-सा देदिप्यमान है ! आज भी वह हमें निराशा के अंधकार से बचाता है ! ____ आज भी हमारे जीवन को आंदोलित करती है र मुनि श्री महेन्द्रकुमार 'कमल' उसकी अनुप्रेरणा ! एक कर्तव्य के दायरे में रहकर भी एक सिमटे हुए आकाश में उदित होकर भी कितना उदार था वह कि उससे हर कोई कुछ न कुछ पा सका ! सूरज, जाति वर्ग के भेदों में कभी नहीं पड़ता। धनी, निर्धन राजा-रंक उच्च निम्न सभी सूरज से एक समान लाभान्वित होते ! चमार, खटिक, हरिजन, वेश्या किसे नहीं दी उसने दिव्यता । अपनी भव्यता से उसने राजाज्ञाएँ प्रसारित करवाई और पशुओं को संरक्षण दिया। वह यशःशरीर बन चुका है वह स्थिरता का एक मानदण्ड बन चुका है। हमारे अस्तित्व में ढल गया है सूर्य उसने हमें सौंपी हैं अपार सक्षमता ! आओ हम दिवाकर की उज्ज्वल परम्परा को आगे और आगे बढ़ाते चले जाएँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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