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________________ | श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ । श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २२६ : केवल स्मृतियाँ शेष श्री रामनारायन जैन, झांसी आगरा से मेरा सम्बन्ध बहुत ही निकट का है क्योंकि वहाँ मेरे कुटुम्बी-जन भी हैं, और मेरी ससुराल भी है जिसके कारण जाना-आना लगा ही रहता है । संतों व साध्वियों के दर्शन होने का सौभाग्य प्राप्त होता ही है । मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि मैं सन्तों के परिचय में आ सका है, और उनकी दिव्य वाणी भी सुनने को मिली है इस शृखला में मैं जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के सम्पर्क में भी आया। उस समय मेरा विद्यार्थी जीवन था। मुनिश्री का आगरा चातुर्मास था । जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का संघ उस समय आगरा में ही विराजमान था । पन्द्रह या बीस साधु-सन्त होंगे ही। श्री चौथमलजी महाराज का व्यक्तित्व कितना महान् था, यह किसी से छिपा नहीं है। जिन्होंने देखा है, वे भली-भांति जानते हैं। चमकता-दमकता चेहरा, उन्नत ललाट, एकदम गौर वर्ण कितना आकर्षण और ओज था उनमें। स्थानक में व्याख्यान के समय स्त्री-पुरुषों का विशाल जमघट होता था 1 कितनी बुलन्द आवाज थी। वे बिना लाउडस्पीकर के भी। व्याख्यान जन-समुदाय के बीच भली-भाँति दिया करते थे । व्याख्यान के समय कितना शांत वातावरण, एकदम स्तब्धता-सी महसूस होती थी। उनकी पुण्याई बड़ी जबरदस्त यी जिसके कारण इतनी प्रसिद्धि पाई और जन-समुदाय उमड़ पड़ता था। आगरा के चातुर्मास में व्याख्यान में श्री चौथमलजी महाराज ने कहा था कि आगरा की लोहामण्डी, लोहामण्डी न होकर सोनामण्डी है, वह वाणी सच सिद्ध हुई । उस समय लोहामण्डी में आथिक रूप से इनेगिने ही सम्पन्न व्यक्ति थे-आज जैसी स्थिति उस समय नहीं थी। श्री चौथमलजी महाराज शंका-समाधाम भी बड़ी उत्सकता के साथ करते थे। उनका अध्ययन-चिंतन-मनन काफी गम्भीर था। सभी धर्मों की पुस्तकें उन्होंने पढ़ी थीं। भाषा पर उनका अधिकार था। उनके तर्कवितर्क सुनने-समझने योग्य होते थे। कानपुर में श्री चौथमलजी महाराज का चातुर्मास था वहाँ भी दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वहाँ भी अपार जन-समूह था। उस समय कानपुर के कुछ लोहा व्यापारियों ने हृदय खोलकर चातुर्मास में बहुत बड़ा सहयोग दिया था। समाज-सुधार पर उनका विशेष ध्यान रहता था। कुरीतियों के निवारण में सदैव उनका सहयोग रहता था। उस समय सुनने में आता था कि श्री चौथमलजी महाराज ने सैकड़ों व्यक्तियों से मांस व शराब का त्याग करवाया है। उनके प्रवचन सुनने अमीर-गरीब सभी आते थे। उस दिव्य सन्तपूरुष के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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