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________________ :२१३ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ का जन-जन में प्रसार करने तथा जिनशासन की प्रभावना में व्यतीत हआ । उत्तर भारत, विशेषकर राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के प्रायः प्रत्येक नगर व ग्राम में पदातिक विहार करके उन्होंने निरन्तर लोकोपकार किया। उनकी दृष्टि उदार थी और वक्तृत्व शैली ओजपूर्ण, सरल-सुबोध एवं प्रभावक होती थी, छोटे-बड़े, जैन-अजैन, सभी के हृदय को स्पर्श करती थी। यही कारण है कि उस सामंतीयुग में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात आदि के अनेक राजा, ठिकानेदार, जागीरदार, मुसलमान नबाब, कई अंग्रेज उच्च अधिकारी तथा जनेतर विशिष्ट व्यक्ति भी उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित हुए। छोटी जातियों-यथा मोची (जिनधर) जैसे लोगों में से अनेकों को मद्य-मांस-त्याग की महाराज ने प्रतिज्ञा कराई। मुनि श्री चौथमलजी के दीक्षाकाल के ५१ वर्ष पूरे होने पर अब से ३१ वर्ष पूर्व रतलाम की श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति ने 'श्री दिवाकर अभिनन्दन ग्रन्थ' प्रकाशित किया था, जिसमें महाराज साहब से सम्बन्धित सामग्री भी बहुत कुछ थी। हमारा भी एक लेख 'राज्य का जैन आदर्श' उस ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ था। उसके तीन वर्ष पश्चात् ही, सन् १९५० ई० में मुनिश्री का ७३ वर्ष की आयु में निधन हो गया । उनके साधिक अर्धशताब्दीव्यापी महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों को देखते हुए वह ग्रन्थ अपर्याप्त था। उनकी विविध साहित्यिक रचनाओं का भी समीक्षात्मक विस्तृत परिचय अपेक्षित था। जिनधर्म की सार्वभौमिकता को जन-जन के हृदय पर अंकित करने के सद्प्रयासी मुनिश्री चौथमलजी महाराज की पुण्य स्मृति में इस शुभावसर पर मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। उच्चकोटि के व्याख्यानदाता -सेठ अचलसिंह, आगरा भू० पू० एम० पी० श्री चौथमलजी महाराज उस जमाने में भारत के जैन समाज में विख्यात साधुओं में एक थे । आगरा समाज ने विनती करके आगरा में चातुर्मास के वास्ते आमंत्रित किया और आप यहाँ पधारे, आपका बड़ा स्वागत किया गया था। दिवाकरजी का बड़ा नाम था और वे बड़े अच्छे दर्जे के व्याख्यानदाता थे । आपका जीवन एकता, मंत्री, शान्ति, अहिंसा और वात्सल्य का अपूर्वशंखनाद था। आपके आगरा में कई सार्वजनिक व्याख्यान हुए। उनका आगरा की जनता पर मुख्यतया सन्त वैष्णव-संप्रदाय के लोगों पर जो जैनधर्म के बारे में भ्रांति थी, वह दूर हो गयी और बड़ा प्रभाव पड़ा। उस समय लाउडस्पीकर नहीं था। आपके प्रतिदिन के व्याख्यानों में सैकड़ों आदमी जाते थे और सार्वजनिक व्याख्यानों में हजारों श्रोता होते थे, आपकी आवाज इतनी बुलन्द थी कि हर व्यक्ति तक आसानी से पहुंच जाती थी। उस जमाने में आगरा में दिवाकरजी के व्याख्यानों की बडी सोहरत थी। आपके प्रभाव से अनेक लोग जैनधर्म के अनुयायी बने ।। मुझे भी उस समय श्री दिवाकरजी की सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे महान आत्मा के चरणों में मेरा भक्तिभरा वन्दन ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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