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________________ श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २०६ : विराट् व्यक्तित्व के धनी 4 साध्वी श्री कुसुमवती श्रमण-परम्परा में जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का व्यक्तित्व बहुत विराट व उर्जस्वल था। लघवय में ही जब मैं साधना-पथ पर कदम बढ़ाने की तैयारी में थी । आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त किया था। आपके ओजस्वी-तेजस्वी व्यक्तित्व से मैं अत्यधिक प्रभावित थी । यही कारण था कि मैं अपनी माँ मे प्रवचन श्रवण हेतु बार-बार उन्हें आग्रहित करती व उन्हें साथ लेकर प्रवचन-स्थल पर पहुँच जाती थी। आपश्री की सुमधुर वाणी का अमृतपान कर मैं अपने आप को धन्य मानती थी। साध्वी पद स्वीकार करने के पश्चात् भी मुझे कई बार आपश्री के ज्ञानभित एवं मंगलमय प्रवचन सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था । आपके प्रवचन में मुझे इतना आनन्द आता था कि मैं यही सोचती रहती कि प्रवचन पीयूष-धारा निरन्तर चलती रहे तो अच्छा ! आपकी वाणी में तेज था। जब आप सभा के बीच में निर्भीक होकर बोलते उस समय ऐसा प्रतीत होता मानो सिंह की गर्जना ही हो रही है। झोंपड़ी से लेकर महलों तक आपकी जादुई वाणी का प्रभाव था। प्रत्येक व्यक्ति के जुबान पर आपका नाम सुनाई पड़ता था। मैंने देखा, जब आप उदयपुर पधारते तो आपकी अगवानी करने हेतु महाराणा श्री फतेहसिंहजी स्वयं पधारते और उस दिन सारे नगर में अमारिपटह उद्घोषित करवाते । “आज के दिन कहीं भी हिंसा नहीं होगी ! कत्लखाने बन्द रहेंगे !" यह था आपका प्रभाव । आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व में जैन समाज ही नहीं अपितु छोटे-छोटे ग्रामों की अबोध व अजैन जनता भी प्रभावित थी। आप जहाँ भी जाते वहीं एक मेला-सा लग जाता था। आपका ग्रामवासियों से बहुत प्रेम था। उनकी भावुकता से प्रभावित होकर कई दिनों तक आप ग्रामों में ही रहते । आपका दृष्टिकोण था कि ग्रामवासियों के नीतिपरक अनाज से जीवन में शुद्ध विचार रह सकते हैं और संयम-जीवन की आराधना-साधना भी सम्यक् प्रकार से हो सकती है । आप मानवतावादी थे। किसी भी दुःखी प्राणी को देखकर आपका करुणाशील हृदय शीघ्र ही द्रवित हो उठता था। उनके दुःख को दूर करने हेतु आप सदा तत्पर रहते। अपने जीवन में हजारों मुक-प्राणियों को अभय-दान दिलवाया था। इस दृष्टि से आपको हम मानवता के महामसीहा भी कह सकते हैं। __ ऐसे विराट व्यक्तित्व के धनी महामहिम श्रद्धेय श्री जैन दिवाकरजी महाराज के चरणकमलों में उनकी जन्म शताब्दी वर्ष में पूण्य पलों में मैं हृदय की अनन्त आस्था के साथ श्रद्धाकुसुम समर्पित करती हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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