SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २०४: मुनिश्री चौथमलजी इसी तरह के महापुरुष थे, जो महत्त्वाकांक्षाओं के पंक में से कमल खिलाना जानते थे। उसे किसी पर उलीचना नहीं जानते थे, वे चिन्तन के उन्मुक्त आकाश-तले अकस्मात् ही आ खड़े हुए थे और उन्होंने अपनी वरदानी छाँव से अपने समकालीन समाज को उपकृत-अनुग्रहीत किया था। हमारी समझ में शताब्दियों बाद कोई ऐसा सम्पूर्ण पुरुष क्षितिज पर आया जिसने रावरंक, अमीर-गरीब, किसान, मजदूर, विकसित-अविकसित, साक्षर-निरक्षर, सभी को प्रभावित किया, सबके प्रति एक अभूतपूर्व समभाव, ममभाव रखा, कोई कुछ देने आया तो उससे दुर्गुण माँगे, धन-वैभव नहीं माँगा, व्यसन माँगे, असन या सिंहासन नहीं माँगा, विपदा मांगी, सम्पदा नहीं मांगी; उन्हें ऐसे लोग अपना सर्वस्व अपित करने आये जिनके पास शाम का खाना तक नहीं था, और ऐसे लोग भी सब कुछ सौंपने आये जिनके पास आने वाली अपनी कई पीढ़ियों के लिए भरण-पोषण था, किन्तु उन्होंने दोनों से, अहिंसा मांगी, जीव दया-व्रत मांगा, सदाचरण का संकल्प मांगा, बहुमूल्य वस्त्र लौटा दिये, धन लौटा दिया; इसीलिए हम संतत्व की इस परिभाषा को भी सजीव देख सके कि सन्त को कुछ नहीं चाहिए, उसका पेट ही कितना होता है ? और फिर वह भूखा रह सकता है, प्यासा रह सकता है, ठण्ड सह सकता है, लू झेल सकता है, मूसलाधार वृष्टि उसे सह्य है, किन्तु यह सह्य नहीं है कि आदमी आदमी का शोषण करे, आदमी आदमी का गला काटे, आदमी आदमी को धोखा दे, आदमी आदमी न रहे। उसका सारा जीवन आदमी को ऊपर और ऊपर, और ऊपर, उठाने में प्रतिपल लगा रहता है। संतों का सबमें बड़ा लक्षण है उनका मानवीय होना, करुणामय होना, लोगों की उस जुबान को समझना जिसे हम दरद कहते हैं; व्यथा की भाषा कहते हैं। मुनिश्री चौथमलजी को विशेषता थी कि वे आदमी के ही नहीं प्राणिमात्र के व्यथा-क्षणों को समझते थे, उनका आदर करते थे, और उसे दूर करने का प्राणपण से प्रयास करते थे। आयें, व्यक्ति-क्रान्ति के अनस्त सूरज को प्रणाम करें, ताकि हमारे मन का, तन का और धन का आँगन किसी सांस्कृतिक धूप की गरमाहट महसूस कर सके, और रोशनी ऐसी हमें मिल सके जो अबुझ है, वस्तुतः मुनिश्री चौथमल एक ऐसे सूर्योदय हैं, जो रोज-ब-रोज केवल पूरब से नहीं सभी दिशाओं से ऊग सकते हैं। जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज प्रकाशचन्द जैन (लुधियाना) जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज की महानता व त्याग अनूठा था, सभी ने अपने को संजोया, सँवारा। उन्होंने गरीब-अमीर के दुःखों को देखा, परखा और उसके निराकरण का मार्ग बतलाया। एक शायर ने कहा है वे सन्त बने, वे महन्त बने चढ़ती हुई भरी जवानी में । वे शूर बने, वे वीर बने जीवन के यकता थे, अपनी शानी में ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy