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________________ : १५६ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम श्री जैन दिवाकर- स्मृति- ग्रन्थ विश्व वन्दनीय जैन दिवाकर ** साध्वी कमलावती श्रद्धेय जैन दिवाकरजी महाराज आज प्रत्यक्ष रूप से हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी उनके मुखारविन्द से निकली हुई अमृतवाणी जन-जन को जीने की सच्ची राह दिखा रही है । उनके सारगर्भित उपदेश जीवन को महान् बनाने की उत्तम औषधि है । महामहिम जैन दिवाकरजी महाराज सर्वगुण सम्पन्न थे। विद्वत्ता के साथ-साथ धैर्यता, गम्भीरता, सरलता, समता, सहिष्णुता, विशालता, मृदुता, वात्सल्यभाव, करुणा आदि उनके सहज गुण थे । उनके दर्शन मात्र से रोगी रोग मुक्त हो जाते थे, उनके चरणोदक से असाध्य रोग मी नष्ट हो जाते थे, उनकी वाणी के प्रभाव से पतित मी पावन बनते थे । उनकी वाणी का प्रभाव सचमुच जादुई था, जोकि झोंपड़ी से लेकर राजमहलों तक को अपनी ओर आकर्षित किए हुए था । पूज्य गुरुदेव तो एक ऐसे महापुरुष थे कि यदि उन्हें पारसमणि की उपमा दी जाय तो भी गलत होगी। क्योंकि कहा है लोहे को सोना करे, वो पारस है कच्चा । लोहे को पारस करे, वो पारस सच्चा ॥ पारस का स्पर्श पाकर लोहा सोना बनता है । पर पारस नहीं; लेकिन गुरुदेव तो एक सच्चे पारस - पुरुष थे। जिनके चरणस्पर्श मात्र में ही पतित भी पावन बन जाता था एवं दुखी, असहाय मनुष्य भी अपने को सर्वप्रकार से सुखी अनुभव करते थे । लोहे को सोना नहीं, पारस ही बना देते थे, अर्थात् उसे भी अपना ही रूप दे देते थे । Jain Education International जैन दिवाकरजी ने अपना ही रूप औरों को भी दिया - आज प्रत्यक्ष देख रहे हैं—जैन दिवाकरजी की प्रतिभा को अक्षुण्ण बनाये रखने वाले, उनकी आन, मान और शान को कायम रखने वाले ज्ञान दिवाकर, प्रवचनकेशरी, कविकुलभूषण पण्डितरत्न श्री केवल मुनिजी महाराज हैं, जोकि भारत के विभित्र प्रान्तों में भ्रमण करके जन-जीवन में धर्मदीप प्रज्वलित कर रहे हैं । आपकी प्रेरणा से समाज के कई रचनात्मक कार्य प्रगति पथ पर हैं । आप श्रद्धेय गुरुदेव की ख्याति में अभिवृद्धि करते हुए चार-चांद लगा रहे हैं । अन्त में मैं हृदय की असीम आस्था के साथ विश्व वन्दनीय जैन दिवाकरजी को शतशः प्रणाम करती हुई चन्द पंक्तियाँ लिखकर विराम लेती हूँ जयन्तियाँ उन्हीं को मनाते हैं, जिन्हें जय हार मिला है । गद्दी पर उन्हीं को बिठाते हैं, जिन्हें अधिकार मिला है ॥ जीवन के सफर में न जाने कितने मिले और बिछुड़ेयाद उन्हीं की करते हैं, जिनसे कुछ प्यार मिला है ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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