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________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : १८८: मुक्त करना है। उसके पश्चात् ही हम उसमें धर्म का बीज-वपन कर सकेंगे, आध्यात्मिक भावना पैदा कर सकेंगे। जैन दिवाकरजी महाराज के प्रवचन जीवन-निर्माण की पवित्र प्रेरणा देने वाले होते थे। यही कारण है कि उनके प्रवचनों को सुनकर हजारों व्यक्ति आध्यात्मिक-साधना की ओर अग्रसर हुए। हजारों व्यक्तियों ने मांस-मदिरा का परित्याग किया और हजारों व्यक्तियों ने सात्त्विक जीवन जीने का व्रत स्वीकार किया । कसाई जैसे कर व्यक्ति भी अहिंसक बने । शूद्र कहलाने वाले व्यक्तियों ने नियम को ग्रहण कर एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया। मैंने अपने जीवन में अनेक बार उनके दर्शन किये । उनसे विचार-चर्चाएँ कीं। मुझे सदा उनका स्नेहपूर्ण सद्व्यवहार प्रभावित करता रहा। वे वार्तालाप और चर्चा में कभी भी उग्र नहीं होते । वे सर्वप्रथम शांति से प्रश्न को सुनते और फिर मुस्कराते हुए उत्तर देते। उत्तर संक्षेप में और सारगभित होता । निरर्थक बकवास करना उन्हें पसन्द नहीं था। प्रवचनों के साथ ही साहित्य निर्माण के प्रति भी उनकी सहज अभिरुचि थी। जब भी समय मिलता उस समय वे लिखा करते। कभी पद्य में, तो कभी गद्य में; दोनों ही विधाओं में उन्होंने लिखा । किन्तु गद्य की अपेक्षा पद्य में अधिक लिखा। उनका मन्तव्य था, पद्य साहित्य सहज रूप से स्मरण हो जाता है। उसमें लय होती है, उसको गाते समय व्यक्ति अन्य सभी को भूल जाता है । गद्य साहित्य पढ़ा जा सकता है, पर उसे स्मरण नहीं रख पाता । इसीलिए सन्त कवियों ने कविताएँ अधिक लिखीं। उनका पद्य और गद्य साहित्य सच्चा सन्त-साहित्य है। उसमें भाषा की सजावट, बनावट और अलंकारों की रमणीय छटा नहीं है और न कल्पना के गगन में ही उन्होंने विचरण किया है। सीधी-सादी सरल भाषा में उन्होंने जीवन, जगत, दर्शन, धर्म और संस्कृति के वे तथ्य और स प्रस्तुत किये हैं कि पाठक अपने जीवन का नव-निर्माण कर सकता है। जैन दिवाकरजी महाराज एक पूण्य पुरुष थे। वे जिधर से भी निकलते उधर टिड्डीदल की तरह भक्तों की भीड़ जमा हो जाती। उनके नाम में ही ऐसा जादू था कि जनता अपने आप खिंची चली आती। एक बार जो आपके सम्पर्क में आ जाता वह भुलाने का प्रयत्न करने पर भी आपको भुला नहीं पाता। आपके जीवन से सम्बन्धित अनेक संस्मरण स्मत्याकाश में चमक रहे हैं। दिल चाहता है कि सारे संस्मरण लिख दूं। परन्तु समयाभाव और ग्रन्थ की मर्यादा को संलक्ष्य में रखकर मैं संक्षेप में इतना ही निवदेन करना चाहूँगा कि वे एक सच्चे सन्त थे, अच्छे वक्ता थे और समाज के तेजस्वी नेता थे। उन्होंने समाज को नया मार्ग-दर्शन दिया, चिन्तन दिया। ऐसे महापुरुष के चरणों में स्नेह-सुधा-स्निग्ध श्रद्धार्चना समर्पित करते हुए मैं अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता हूँ। wuzIIIIIIIII aumIII Sunuwa ADUIIIIIIIIIIIIII NNNNN NNNNOINSITION SHRATHIIIIIIIIION Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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