SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :१८३ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम श्री जैन दिवाकर स्मृति- ग्रन्थ शत-शत तुम्हें वन्दन मुनि लाभचन्द्रजी (जम्मू तवी) तुम थे संत महंत, तुम्हारा नाम सुनते जोश आता है । रगों में हमारे अफसानों से, चक्कर खून खाता है। आपका नाम व आपका काम दोनों ही महान् थे। नाम जपने से निराशा शान्त होती है, आपके उपकार याद आते हैं। आप जिनेश्वरदेव के मार्ग पर नर से नारायण बनने वाले अगणित साधकों में से एक हैं। आपने वह प्रकाश, वह आभास प्राप्त किया--जो अतीव कठिन था। आपने सारे जहान को रोशनी दी । शान्ति दी। मुझे भी श्री जैन दिवाकरजी महाराज के सान्निध्य में काफी अर्से तक रहने का मौका मिला। कई बार कहा करते थे, लाभ मुनि ! तुमने बाल्यकाल में संयम-पथ लिया है, यह असीम पुण्योदय का फल है । ___ एक बार उनके साथ में देहली का वि० सं० १६६५ का चातुर्मास उठोकर लुहारासराय स्थानक पर चढ़ने वाले कलश के उत्सव में जा रहे थे। रास्ते में एक खेखड़ा गांव आया, एक जन्मांध बालक किसी के बहकाने पर जैन दिवाकरजी महाराज के समीप आकर अप्रासंगिक चर्चा करने लगा। गुरुदेव बोले-'आज तो तुम दूसरों के बहकावे में बहककर इस प्रकार बोल रहे हो, पर एक दिन ऐसा आयेगा कि तुम्हारे दरवाजे पर बड़े-बड़े सेठों की कारें खड़ी रहेंगी।' ठीक वही बात हुई। हम दो हजार आठ का देहली का चातुर्मास उठाकर लुधियाने की ओर देहली से बड़ोत कांधला होते हुए करनाल जा रहे थे तो देहली से बड़ोत जाने वाले मार्ग में वही खेखड़ा गांव पड़ा, एक भाई के मकान में टहरे, वह बालक भी आया जिसे गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त था, कहने लगा-'महाराज ! मेरा विकास गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज की कृपा से हुआ है। मैं पामेष्ट्री हस्तरेखा विज्ञान का प्रखर ज्ञाता बना है। प्रश्नकर्ता के हाथ की रेखाओं पर केव अंगुली फेरकर सारा भविष्य बता देता हूँ। कई दिन तक सेठ लोग मेरे दरवाजे पर पड़े रहते हैं।' हाँ तो उनकी वाणी ब्रह्म-वाक्य थी। _यह तो सुनिश्चित है कि श्रमण संस्कृति के जीवन विधायक श्रमण संत होते हैं। श्री चौथमलजी महाराज श्रमण संस्कृति के संरक्षक, संवर्धक थे। उनकी वाणी में मधुरता थी, आँखों में प्यार था। जीवन में दुलार था। उनका जीवन-मन समाहित था। वे जीवन-साधना की परिधि में हमेशा अग्रसर रहते थे । वास्तव में उनकी जीवन-साधना समग्र रूप से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र से युक्त थी। जिनके विचारों में विश्वमंगल निहित था। जिनके आनन पर रहती थी, मधुर हास्य की रेखा । हर व्यक्ति ने कठिन समय में, आपको देवरूप में देखा। स्वयं सफलता ही उनकी, गोदी में खेला करती थी। विजयश्री उनके मस्तक पर तिलक लगाया करती थी। उनके चरण चूमने अगणित जनता आती थी। वो जीवन धन्य समझते थे जब थोडी-सी चरण-रज मिल जाती थी। ऐसे थे वे चारित्र चड़ामणि, विश्वमंगल के प्रतीक श्री चौथमलजी महाराज । जिनकी साधना स्वयं के लिए तथा सर्वजनहिताय थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy