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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ | :१७७ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम शपथ दिलाते हिंसा, मद्य, मांस, घूस की तो देते उपदेश उच्च आतम उद्धार पै। संयम-नियम सदाचार का प्रचार कर अमल किया था चौथमल वर्ण चार पै। दोहा 'निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य' को, 'धम्मपद'-'गीता' जान । अन्तःकरण विशुद्ध का, नया निरूपण मान ।। जनमें थे रविवार को, दीक्षा ली रविवार । रविदिवस गये स्वर्ग को, रविवासर 'रवि'प्यार ।। आगम-निगम-निधान थे, सम्पन्न शील नदीश । चौथ संत की चरण-रज, शीश धरी 'जगदीश' ।। बहुत धर्म का वर्ष तो, है यह भारतवर्ष । आदर्श धर्म के योग्य तो, जैनधर्म उत्कर्ष ।। देखा मैंने १ कविवर श्री अशोक मुनि देखा मैंने संत रूप, सत्पथ दिखलाते मानव को तपःअस्त्र से मार भगाते, पाप-पुज के दानव को ॥१॥ देखा मैंने वृद्ध-जनों में, वृद्धों-सी करते बातें नवयुवकों में देखा, नव सामाजिक विप्लव फैलाते ॥२॥ बच्चों में बचपन की स्मृतियाँ, देखा तन्मय हो कहते वीर केशरी दृढ़-प्रतिज्ञ हो, कठिन परिषह भी सहते ॥३॥ देखा मैंने कवि रूप, पद सरस ललित चन-चन धरते व्याख्यानों में देखा वाग्मी, बन जन गण मोहित करते ॥४॥ अर्हत दर्शन के प्रकाण्ड, पण्डित हो दर्शन समझाते प्रभु स्मरण में देखा मैंने, व्यय करते पूरी रातें ।।५।। देखा "जैन दिवाकर" बनकर संघ सुमन को विकसाते आत्म-लग्न से सत्य, अहिंसा को जीवन में अपनाते ।।६।। "अशोक मुनि” गुरुदेव चरण में, मेरा हो शत-शत प्रणाम शत-शत वर्षों जिन-शासन में, रहे आपका अविचल नाम।।७।। १ पृथ्वी के खण्ड को भी कहते हैं। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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