SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : १२३ : आध्यात्मिक-ज्ञान की जलती हई मशाल || श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ माह स्थविर हैं तथा जो बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित है। तात्पर्य यह है कि अंग प्रविष्ट के प्ररूपक भी तीर्थकर हैं और अंग-बाह्य के प्ररूपक भी तीर्थकर हैं। पर मूल वक्ता एक होने पर भी संकलनकर्ता पृथक होने से अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य ये भेद किये गये हैं। माताजी ने पूछा-"मूल सूत्र' और 'छेदसूत्र' किसे कहते हैं ?" दिवाकरजी महाराज ने उत्तर देते हुए बताया-"जिन आगमों में मुख्य रूप से साधु के आचार-सम्बन्धी मूल गुण-महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि का वर्णन हो और जो साधु-जीवन के लिए मूलरूप से सहायक बनते हों और जिनका अध्ययन सबसे पहले किया जाय वे 'मूलस्त्र' हैं । इसीलिए सबसे पहले साधु को दशवैकालिक सूत्र पढ़ाया जाता है। उसके बाद उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ाया जाता है। " 'छेदसूत्र' प्रायश्चित्त सूत्र हैं। पांच चारित्र में दूसरा चारित्र 'छेदोपस्थापनीय' है । दस प्रकार के प्रायश्चित्तों में छेद सातवाँ प्रायश्चित्त है। आलोचनाह प्रायश्चित्त से छेदाह प्रायश्चित्त सातवां प्रायश्चित्त है। ये सातों प्रायश्चित्त उस श्रमण को दिये जाते हैं जो श्रमण-वेष में होते हैं। और शेष तीन अन्तिम प्रायश्चित्त वेष-मुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। छेद प्रायश्चित्त से उसके पूर्व के जितने भी प्रायश्चित्त हैं उनको ग्रहण किया गया है। इन्हीं प्रायश्चित्तों के साधक अधिक होते हैं । छेदसत्रों के अर्थागम के प्ररूपक भगवान महावीर हैं। अन्य सूत्रों के रचयिता स्थविर भगवान हैं । छेदसूत्रों में एकसूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं होता । सभी सूत्र स्वतन्त्र अर्थ को लिये हुए होते हैं। इसीलिए भी इन्हें छेदसूत्र कहा है।" माताजी ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-"नन्दीसूत्र को मूलसूत्र क्यों कहा है ? उसमें तो चारित्र का कोई निरूपण नहीं है।" जैन दिवाकरजी महाराज ने समाधान दिया-"पाँच आचार में सबसे पहला आचार ज्ञान है। ज्ञान के बिना अन्य आचार का सम्यक् पालन नहीं हो सकता। नन्दीसूत्र में ज्ञान का निरूपण होने से इसे मूलसूत्र में स्थान दिया गया है।" माताजी ने पूछा-"उत्तराध्ययन सूत्र में अकाममरण और सकाममरण का वर्णन है। इस अकाममरण और सकाममरण का तात्पर्य क्या है ?" जैन दिवाकरजी महाराज ने उत्तर देते हुए कहा-"जो व्यक्ति विषय कषाय में आसक्त होने के कारण मरना नहीं चाहता, किन्तु आयु पूर्ण होने पर वह मृत्यु का वरण करता है, उसका मरण विवशता से होता है, अतः वह अकाममरण है । उसे दूसरे शब्दों में 'बाल-मरण' ही कहते हैं। सकाममरण वह है जिस व्यक्ति के मन में विषयों के प्रति आसक्ति नहीं है, जीवन और मरण दोनों आकांक्षाओं से मुक्त है, मत्यु का समय उपस्थित होने पर भी जिसके अन्तर्मानस में तनिक मात्र भी भय का संचार नहीं होता, किन्तु मृत्यु के क्षणों को भी जीवन की तरह प्रिय मानकर आनन्दित होता है, संकटपूर्ण उन क्षणों में भी मन में संकल्प-विकल्प न कर पापों का परिहार कर, आत्मसाधना के लिए अशन आदि का परित्याग करता है, वह सकाममरण है। इसे 'पंडितमरण' भी कहते हैं। और यह मरण 'विरतिमरण' भी कहा जाता है।" माताजी ने पूछा- “षडावश्यक में एक आवश्यक 'कायोत्सर्ग' है, और बारह प्रकार की निर्जरा में अन्तिम निर्जरा का नाम कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ काया का परित्याग है। काया का परित्याग कैसे किया जा सकता है ?" जैन दिवाकरजी महाराज ने कहा-"कायोत्सर्ग का अर्थ केवल काया का परित्याग नहीं है। कायोत्सर्ग का वास्तविक अर्थ है-'काया की ममता का त्याग'। उसकी चंचलता का विसर्जन है। कायोत्सर्ग में केवल श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृति रहती है, अन्य सभी प्रवृत्तियों का निरोध किया जाता है। कायोत्सर्ग खड़े होकर और बैठकर किया जा सकता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy