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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ आध्यात्मिक ज्ञान की जलती हुई मशाल स्मृतियों के स्वर : १२२ : जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज जैन समाज के एक तेजस्वी मनीषी मुनिराज थे। उनका बाह्य और आभ्यन्तर व्यक्तित्व हृदय को लुभाने वाला और मन को मोहने वाला था । ऊँचा कद, गौरवर्ण, भव्यभाल, ऊँची और उठी हुई नाक, पीयूष रस बरसाते हुए नेत्र-युगल, बड़े कान, लम्बी भुजाएँ, भरा हुआ आकर्षक भव्य मुखमण्डल, यह था दिवाकरजी महाराज का बाह्य व्यक्तित्व, जिसे देखकर दर्शक आनन्द-विभोर हो उठता था। वह कभी उनकी आकृति की तुलना स्वामी रामतीर्थं से करता और कभी विवेकानन्द से, कभी बुद्ध से, तो कभी श्रीकृष्ण से । बाह्य व्यक्तित्व जहाँ इतना आकर्षक था, वहाँ आन्तरिक व्यक्तित्व उससे भी अधिक आकर्षक था। वे एक सम्प्रदाय विशेष के सन्त होने पर भी, सभी सम्प्रदायों की महानता का आदर करते थे। स्नेहसद्भावना के साथ उनमें मंत्री स्थापित करना चाहते थे। वे धर्मसंघ के नायक थे तथापि उनमें मानवता की प्रधानता थी । वे जन-जन के मन में सुसंस्कारों का सरसब्ज बाग लगाना चाहते थे। स्वयं कष्ट सहन कर दूसरों को आनन्द प्रदान करना चाहते थे। उनमें अपार साहस था, चिन्तन की गहराई थी, दूसरों के प्रति सहज स्नेह था। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुमुखी था। उन्होंने व्यवहार कुशलता से जन-जन के मानस को जीता था और संयमसाधना के द्वारा अन्तरंग को विकसित किया था। जो भी उनके निकट सम्पर्क में आता वह उनके स्वच्छ हृदय, निश्छल व्यवहार से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । * श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज भ्रमण परम्परा के एक ओजस्वी और तेजस्वी प्रतिनिधि सन्त थे । वे विशिष्ट व्याख्याता, अग्रणी ध्वजवाहक ही नहीं अपितु सर्वोपरि नेता थे । उन्होंने नवीन चिन्तन दिया । उनमें धर्म और जीवन के मर्म को समझने की अद्भुत क्षमता थी । उन्होंने जीवन को आचार की उत्कृष्टता, विचारों की निर्मलता और नैतिकता से सजाने की प्रेरणा दी । जातिवाद, पंथवाद, प्रान्तवाद से ऊपर उठकर उन्होंने मानव को महामानव बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बताया- धर्म, संस्कृति और समाज का अविच्छिन्न सम्बन्ध है जब तक ये तीनों खण्ड-खण्ड रहेंगे वहां तक जीवन में अखण्डता नहीं आ सकती । Jain Education International मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन उदयपुर में सन् १९३८ में किये थे। मैं अपनी मातेश्वरी तीजवाई के साथ पहुंचा था जिनका दीक्षा के पश्चात् महासती प्रभावतीजी नाम है माताजी को आगम साहित्य व स्तोक साहित्य का गम्भीर ज्ञान है । उन्होंने दिवाकरजी महाराज से अनेक जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की। माताजी ने पूछा - "अंगप्रविष्ट' और 'बंग बाह्य' में क्या अन्तर है ?" दिवाकरजी महाराज ने कहा- "जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकमाध्य में अंगप्रविष्ट श्रुत उसे माना है, जो श्रुत गणधर महाराज के द्वारा सूत्र रूप में रचा गया हो, तथा गणधरों के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर भगवान् जिसका प्रतिपादन करते है और जिसमें शाश्वत सत्य रहा हुआ होता है । अंगप्रविष्ट सदा शाश्वत रहता है । कभी ऐसा नहीं कि वह नहीं था । वह नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है । वह था, और है तथा भविष्य में भी रहेगा । वह ध्रुव है; नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित और नित्य है ऐसा समवायांग और नन्दी सूत्र में स्पष्ट रूप से बताया गया है । अंग बाह्य वह है, जिसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर भगवान हैं, और जिस सूत्र के रचयिता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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