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________________ : ११७ : नजर भर देखा तो.... श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ महाराज को साधुनयन देखकर वे कहने लगे 'आप क्यों चिन्ता करते हैं ? श्री जैन दिवाकरजी महाराज का अधूरा कार्य हम लोग मिलकर पूरा करेंगे।' आचार्यजी के विशाल हृदय से निकले ये शब्द सभी के लिए सान्त्वनादायक सिद्ध हुए । कोटा का वह चातुर्मास जैन इतिहास में अमर हो गया । गुरुदेवश्री के अन्तिम समय में पं० मेवाड़ भूषण श्री प्रतापमलजी महाराज, प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज भी पहुँच गये थे । उन्होंने भी अन्तिम दर्शन सेवा का लाभ प्राप्त कर लिया था । कोटा श्रीसंघ ने, बाबू गणेशीलाल जी ने तथा अन्य अनेक धावकों ने गुरुदेव एवं श्रमण वर्ग की सेवा तो तन-मन से की ही, दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों की भी तन-मन-धन से जो सेवा की उसे लोग बाज भी स्मरण करते हैं। और कोटा नगरी को 'तीयं' की भांति मानते हैं । ☆ नजर भर देखा तो.. * मोतीसिंह सुराना, भीलवाड़ा वीर भूमि मेवाड़ की औद्योगिक नगरी भीलवाड़ा में एक बार पूज्य गुरुदेव का पदार्पण हुआ । उस समय पं० रत्न श्री नन्दलालजी महाराज, पं० रत्न श्री देवीलालजी महाराज, पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज अपने शिष्यों सहित पधारे थे। संयोग से यहाँ गुरुदेव के पास में तीन भागवती दीक्षाओं का भव्य आयोजन हुआ । तालाब के किनारे पर बड़े मैदान में एक प्राचीन वट वृक्ष के नीचे दीक्षा होना निश्चित किया गया। गुरुदेव उसी विशाल बरगद के नीचे ऊंचे पाट पर विराजमान थे। कई सन्त सतियाँ भी पास में ही सुशोभित थे । भीलवाड़ा निवासियों के अलावा सवासी गाँवों के ५ हजार नर-नारी रंगबिरंगे परिधानों से सुसज्जित होकर यह दीक्षा महोत्सव देखने आये थे। पूरा मैदान खचाखच भरा हुआ था। कुछ नौजवान और बच्चे उपयुक्त स्थान न मिलने से उसी पुराने वट वृक्ष पर चढ़कर दीक्षा महोत्सव और मुनिदर्शन का आनन्द ले रहे थे । अचानक उस वट-वृक्ष की एक विशाल भीमकाय शाखा, जिस पर कई व्यक्ति चढ़े हुए थे. जोर से चरमराई । उसके चरमराने का शब्द सुनकर नीचे बैठे नर-नारी घबरा उठे । सब के होश उड़ गये और एक भयंकर अनिष्ट की आशंका से कुहराम मच गया। उसी समय पूज्य गुरुदेव ने अपनी नजर ऊपर की ओर उठायी और जलद-गम्भीर ध्वनि से तीन बार शान्ति ! शान्ति !! शान्ति !!! उच्चारण किया। वट वृक्ष की वह भीमकाय शाखा ज्यों-की-त्यों ठहर गई । दीक्षा समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ। सब नर-नारी गुरुदेव का जय-जयकार करते हुए अपनेअपने स्थान के लिए प्रस्थान कर गये। सभी सन्तगण भी प्रस्थान कर चुके थे और देखते-देखते वह स्थान पूर्णतः मानव रहित हो गया । जब एक भी व्यक्ति उस वट वृक्ष के नीचे नहीं रहा, तब वही भीमकाय शाखा जोर से चरमराहट करते हुए धराशायी हो गई। इस आश्चर्यजनक अद्भुत चमत्कार से लोग दंग रह गये और गुरुदेव के चारित्र बल की सर्वत्र मुक्त कण्ठ से प्रशंसा होने लगी । इस विचित्र दृश्य को अपनी आंखों से देखने वाले कुछ बड़ेबूढ़े लोग आज भी भीलवाड़ा में विद्यमान हैं, जो बड़े गर्व से इस घटना का वर्णन यदा-कदा करते रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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