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________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । स्मृतियों के स्वर : ११४: विहार करते हुए रामपुरा पहुंचे। करीब ग्यारह बजे वहाँ से विहार करने का विचार था, किन्तु रामपुरा श्रीसंघ ने रुकने का व एक व्याख्यान देने का बहुत आग्रह किया। रामपुरा श्रीसंघ साधु-सन्तों के प्रति अत्यन्त भक्तिभाव रखता है। पिछले वर्ष भी चातुर्मास की बहुत ओग्रह भरी विनती उन्होंने की थी, पर कुछ कारणों से चातुर्मास न कर सके । संघ ने प्रार्थना को कि 'चातुर्मास न किया तो न किया, कम से कम एक व्याख्यान तो सुना दीजिये।' गुरुदेव के स्वास्थ्य की स्थिति के विषय में हमने संघ के अग्रगण्यों को समझाया कि अभी तो एक-एक मिनट का विलम्ब भी खटकने वाला है। हम गुरुदेव के दर्शनों के लिए तेजी से कदम-कदम बढ़ाये जा रहे हैं, उस स्थिति में व्याख्यान के लिए रुकना बहुत ही अटपटा लगता है। आखिर अनेक प्रकार से समझाने पर वे लोग मान गये और हम विहार करके गाँव के बाहर आये। वहाँ मांगलिक सुनाने के लिए जैसे ही रुके तो चित्तौड़ श्रीसंघ की बस उधर से आ पहुँची। वे लोग गुरुदेव के दर्शन कर वापस लौट रहे थे। उन्होंने बताया-'गुरुदेव की तबियत पहले से ठीक है।' बस, अब तो रामपुरा श्रीसंघ ने और भी आग्रह किया-'चलिए अब तो एक व्याख्यान सुनाकर ही विहार कीजिए।' किन्तु हम लोग वापस नहीं लौटे, और आगे बढ़ गये । लम्बा विहार ! सड़क का कंकरीला मार्ग । मन में गुरुदेव के स्वास्थ्य की चिन्ता और शीघ्र पहुँचने की अकुलाहट । पर रास्ता तो काटे ही कटता था । रामगंज मण्डी पहुँचे, तब तक श्री इन्द्र मुनिजी के पाँव के तले घिस गये थे। चमड़ी छिल गई और खून टपकने लग गया। विहार की गति मन्द हो गई । आखिर साथी मुनि को छोड़कर कैसे आगे जायें। वहाँ पर एक छपा हुआ पर्चा मिला जिममें लिखा था-'गुरुदेव को पहले से आराम है, चिन्ता जैसी कोई बात नहीं है । बाहर से दर्शनार्थ आने वाले भाई-बहन अपने साथ डाक्टर आदि लेकर न आवें, यहाँ व्यवस्थित चिकित्सा चल रही है।" हम लोग मोडक होकर दर्रा स्टेशन पहुँचे । रात भर वहाँ विश्राम लिया। प्रातःकाल प्रतिक्रमण करने को उठे तो श्री इन्द्रमुनि जी ने कहा- मुझे एक स्वप्न आया है--काला सांप निकला है, अंधेरे में किसी को डस कर चला गया है । मैंने ऊपर से तो उनको समझाया, सान्त्वना दे दी। पर भीतर से मेरा मन आशंकित हो उठा। मन के एक कोने में एक तीखी अकुलाहट उठी-गुरुदेव ..."पर फिर मन को शान्त किया-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । गुरुदेव का वरदहस्त अभी तो दीर्घकाल तक समाज एवं शिष्यों पर बना रहेगा." सूर्योदय होने पर विहार करने की तैयारी की । सोचा-कल शाम को भी आहार नहीं लिया था और प्रातः भी कम ही हुआ था, अतः अभी कुछ मिल जाय तो लेकर सीधे चलते रहें, मंजिल पार कर मंडाने तक पहुँच जाय । प्रातः चार घरों में गये, पर संयोग ऐसा बना कि कहीं भी आहार-पानी का योग नहीं बना। साधु-जीवन की यही तो मौज है, 'कभी घी घना, कभी मुठी चना और कभी वह भी नहीं बना।' दर्रा स्टेशन से चल पड़े, मंडाने का मार्ग जिस मेन रोड से अलग होता था उस पर कुछ कदम आगे बढ़े ही थे कि कोटा की तरफ से एक कार आती हुई नजर पड़ी। लोट कर मेन रोड पर वापस आये कि कार वालों से गुरुदेव के कुछ समाचार पूछे । हमें देखकर कार भी रुकी, उसमें रतलाम वाले श्री बापूलाल जी बोथरा, श्री हस्तीमलजी बोरा आदि थे। वे उतरकर निकट आये और बताया कि गुरुदेव ने संथारा कर लिया है। आप जल्दी कोटा पहुँचिए। _ 'हम लोग जल्दी तो चल ही रहे हैं, मगर आखिर पांव से चलने वाला कितना जल्दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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