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________________ :११३ : अन्तिम दर्शन श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ | अन्तिम दर्शन * कविरत्न केवल मुनि जिस भूमि पर फूल खिलते हैं, जहाँ अपनी सौरभ लुटाते हैं वह वन-खण्ड भी 'उपवन' कहलाता है। जिस घोर जंगल या पर्वत कन्दरा में बैठकर साधक अपनी साधना में लीन होता है, जहाँ तप व ध्यान की अलख जगाता है, वह अरण्य भी 'तपोवन' के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है। भगवान महावीर ने जिस नगरी की पवित्र भूमि पर अपना अन्तिम प्रवचन दिया और देहत्याग कर परम निर्वाण प्राप्त किया वह सामान्य पावापुरी आज 'पावा तीर्थ' के नाम से जगविश्र त है। इसी प्रकार आज कोटा' शहर भी एक पवित्र नगर के रूप में प्रसिद्ध हो रहा है। इस भूमि पर भारत के एक महान सन्त जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ने अपनी महायात्रा का अन्तिम पड़ाव लिया था। साधना-तपस्या-जनकल्याण की अनवरत लौ जलाते-जलाते वह ज्योतिपुंज इस नगर में अपनी अन्तिम प्रकाश किरण बिखेर कर देह का त्याग कर अमरलोक की और प्रस्थान कर गया था। उस ज्योति के अन्तिम दर्शन संसार को इस नगर में हुए थे, इसलिए कोटा नगर भी एक तीर्थस्थान की तरह इतिहास में सदा याद किया जायेगा। उस महापुरुष की झोली में अमृत भरा था, जो भी उसके चरणों में आया, वह कभी खाली हाथ नहीं लौटा, अपनी शक्ति के अनुसार अमृत की दो-चार बूंदें प्राप्त कर कृतकृत्य होकर ही लौटा । हजारों लोह-जीवन कंचन हो गये थे। दया, करुणा, सदाचार और सात्विकता की भगीरथी बहती थी उस देव-पुरुष के सान्निध्य में। आज भी कुछ स्मृतियाँ मन को गुदागुदा रही हैं, जब मैं उस महापुरुष के अन्तिम दर्शनों के लिए लम्बा विहार कर कोटा पहुँचा था । सूर्यास्त से पहले ही पहुँच गया, पर तब तक जैन जगत् का वह धर्म सूर्य अस्त हो चुका था और मैं अस्ताचल की ओर गये सूर्यबिम्ब की सुनहरी आभा को ही एक टक देखता रहा, उदास ! विचारलीन ! वि० सं० २००७ का चातुर्मास गुरुदेवश्री की आज्ञा से रतलाम में किया था और चातुर्मास समाप्त कर दक्षिण की ओर जाने का विचार किया था। उन्हीं दिनों मन्दसौर में मालवरत्न उपाध्याय श्री कस्तूरचंदजी महाराज विराजमान थे। उनके भ्राता पं० रत्न श्री केशरीमलजी महाराज का जयपुर में स्वर्गवास हो गया था। गुरुदेवश्री की आज्ञा हुई कि मैं पहले मन्दसौर जाकर उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज से गुरुदेव की तरफ से सुखसाता पूछकर सान्त्वना संदेश दूं। __मैं मन्दसौर पहुंचा। प्रातः कृत्य से निवृत्त हो दूध पीने के लिए बैठा था। पात्र जैसे ही मंह के निकट लगाया कि बाहर से आवाज आई-कोटा में गरुदेवीश्री अस्वस्थ हैं।' संवाद सुनते ही दूध का पात्र नीचे रख दिया। बाहर आकर पूछा तो पता चला कि गुरुदेव का स्वास्थ्य काफी बिगड़ रहा है। मन क्षुब्ध हो गया, उस दिन दूध नहीं पिया। कोटा से सुबह-शाम समाचार मिलते रहते थे कि डाक्टर-वैद्य आदि गुरुदेव की चिकित्सा कर रहे हैं, पर कोई लाभ नहीं है। श्री चांदमलजी मारु ने कहा-'गुरुदेव के दर्शन करने हों तो विहार कर जाओ। मार्ग में गुरुदेवश्री के समाचार आपको मिलते रहेंगे।' उसी समय पाँच साधुओं ने कोटा की तरफ विहार कर दिया। दो तो उसी दिन पीपलिया मण्डी पहुंच गये। हम तीन सन्त पीछे रह गये। श्री इन्द्रमलजी मुनि चलने में कुछ ढीले थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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