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________________ || श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ । स्मृतियों के स्वर : ११२ : व्यक्तित्व की अमिट छाप श्री ईश्वर मुनिजी महाराज (स्व० पूज्य गुरुदेव श्री सहस्रमलजी महाराज के सुशिष्य) वोर प्रसवनी वसुन्धरा पर लाखों-करोड़ों मानव जन्म लेते हैं, वे सभी जन्म के साथ ही शुभाशुभ कर्म बांध कर आते हैं। उनमें शूभ नामकर्म वाले मानव तेजस्वी, ओजस्वी एवं प्रमाविक व्यक्तित्व के धनी होते हैं । उनका जगतीतल पर 'व्यापक प्रभाव होता है, जहाँ कहीं पर पहंचते हैं उनकी यशकीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त होती चली जाती है। उनका नाम श्रवण करने मात्र से ही मानव का क्रोध एवं अभिमान ओले की तरह गल जाता है। बात विक्रम संवत् २००६ की है मुझे दीक्षित हुए एक ही वर्ष हुआ था । स्थानकवासी समाज के एकीकरण के लिए सादड़ी (मारवाड़) में वहत्साधु सम्मेलन की व्यापक तैयारियां चल रही थीं। पूज्य गुरुदेव श्री सहस्रमलजी महाराज भी अपनी शिष्य मण्डली सहित सम्मिलित होने के लिए पाली से विहार कर सादड़ी पधार रहे थे। मैं भी गुरुदेव के साथ था । मुन्डारा एवं बाली के मध्य में छोटा-सा गाँव आता है जहाँ अजैनों की बस्ती है । हम सभी मुनिवृन्द स्कूल के प्रांगण में ठहरे हुए थे। प्रतिक्रमण आदि धार्मिक क्रिया से निवृत्त हुए ही थे कि एक व्यक्ति ने आकर क्रोध मिश्रित स्वर में पुकारा यहाँ कौन ठहरे हुए हैं ?" अन्धेरे में उसकी मुखाकृति स्पष्ट नहीं दिखाई दे रही थी। गुरुदेव ने अत्यन्त शान्त एवं मधुर स्वर में कहा-भाई ! हम जैन साधु हैं तथा अध्यापक की आज्ञा से यहाँ ठहरे हैं। जैन साधु का नाम सुनते ही उसने टार्च का प्रकाश किया, एवं हम सभी मुनिवरों को देखने लगा । तत्पश्चात् बोला आप किनके शिष्य हैं ? गुरुदेव बोले-हमारे गुरु जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज हैं। इतना सुनते ही वह अत्यन्त प्रसन्न होकर सभी मुनिवरों के चरणो में श्रद्धा युक्त वन्दन करने लग गया और बोला-मैं उदयपुर राज्य का रहने वाला राजपूत हूँ। मेरे भी गुरु जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज हैं, उन्होंने मुझे गुरु-मन्त्र दिया था एवं आजीवन मद्य-मांस भक्षण न करने की प्रतिज्ञा दिलाई थी जिसे मैं आज तक निभा रहा हूँ; उन्हीं की असीम कृपा के फलस्वरूप आज मैं थानेदार की पोस्ट पर कार्य कर रहा हूँ। आज मैं अपने आपको भाग्यशाली समझता हूँ कि आज मेरे उपकारी गुरुदेव के शिष्यों का मुझे दर्शन-लाभ मिला। मैं यहाँ रात्रि निवास करने के लिए स्थान की तलाश में आया था किन्तु आप जैसे मुनिवरों का अनुपम संयोग मिल गया। अब अन्य जगह विश्राम करूंगा आप आनन्द से रहें। यह था जैन दिवाकरजी महाराज का जन-मन में व्यापक प्रभाव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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