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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति- ग्रन्थ स्मृतियों के स्वर : ११० : (२) अभिवृद्धि सुश्रावक श्री रावतमलजी चोपड़ा ने हमें सुनाया-विक्रम संवत् १६६७ के दिनों में जैन दिवाकरजी महाराज चातुर्मास करने के लिए जोधपुर जाते समय पाली से विहार कर चोटेलाव पधारे । मुनियों के लिए आहार-पानी का प्रश्न बिल्कुल नहीं था। क्योंकि-गाँव में जैन परिवार के अलावा अन्य कई उत्तम परिवार गुरुदेव की वाणी के रसिक थे। वे आहार-पानी बहराने के लिए लालायित रहा करते थे। प्रश्न था बिना सूचना दिये आये हुए दो सौ दर्शनार्थियों का । माना कि सामान सामग्री की कमी नहीं थी। गाँव की दृष्टि से व्यवस्था करने वालों की और यातायात साधनों की अवश्य कमी थी। मैं कुछ क्षणों के लिए विचार में डूबा रहा-गुरुदेवश्री के पदार्पण से इस छोटे से गांव में दर्शनार्थियों का मेला जुड़ा हआ है पर इनके भोजन की व्यवस्था कैसे बनेगी? चकि कार्यकर्ताओं की कमी है। खैर, गुरुदेव यहां विराजमान है मुझे क्या चिंता। गुरुदेव के समीप आकर मैंने कहा'गुरुदेव ! दर्शनार्थियों के भोजन की व्यवस्था एक समस्या बन गई है । धन की कमी नहीं, साधन की कमी है। कदाच सामान घट गया तो क्या होगा? पाली शहर भी दूर है मोटर की व्यवस्था है नहीं। महाराजश्री-रावतमलजी ! क्या तुझे देव-गुरु-धर्म पर विश्वास नहीं है ? गौतम स्वामी की स्तुति और मांगलिक सूनो-आनन्द मंगल"....." घर आकर सोचा, भोजन नहीं, सभी को थोड़ा-थोड़ा नास्ता करवा दिया जाय, ऐसा विचार कर जो मौजूदा सामग्री थी उसे तैयार करवा दी। भोजन के लिए पंक्ति शुरू हुई। न मालम गुरुदेव की क्या कृपा हुई कि-सभी पेट भर भोजन कर गए। उसके बाद पचास भाई और भोजन कर सकें उतनी सामग्री बची रही। सभी के आश्चर्य का पार नहीं था । जबकि मूल में पचास भाई भोजन करे, केवल उतनी सामग्री थी। वह सामगी सारी ज्यों-की-त्यों बच गई। दो सौ भोजन कर गये वह सामग्री कहाँ से आई ? यह गुरुदेव ही जानें। नोट-गुरुदेव श्री रमेश मुनिजी महाराज साहब आदि हम चारों मुनि चोटेलाव गए तब श्री रावतमलजी साहब चोपड़ा ने बड़ी श्रद्धापूर्वक उक्त दोनों प्रसंग हमें सनाये । (३) वाणी का अमिट असर _ जैन दिवाकरजी महाराज की सरल सबोध व्याख्यान-शैली सीधी श्रोताओं के मानस-पटल पर असर किया करती थी। फिर श्रोताओं को अपने आपको समझने में और जैनधर्म के सिद्धान्तों को समझने में काफी आसानी हो जाया करती थी। सरल सुबोध व्याख्यान श्रवण कर जोधपुर निवासी एक मोची परिवार ने सहर्ष जैन धर्म स्वीकार किया। नियम-उपनियमों से उस परिवार को अवगत किया। नवकार महामंत्र, सामायिक और प्रतिक्रमण के स्वरूप को भी बताया। काफी दिनों तक गुरुदेव की ओर से उस परिवार को ठोस संस्कार मिलते रहे। ताकि भविष्य में यह इमारत धराशाही न होने पावे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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