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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ - एक पारस पुरुष का गरिमामय जीवन : : एक दिशा अभी बाकी है। यहाँ से आप तीनों ही जयपुर पधारें मैं वहाँ आचार्यश्री तुलसी को लाने का पूरा-पूरा प्रयास करूंगा । यदि मैं सफल हो गया तो चारों दिशाएं जगमगा उठेंगी। जैन संघ के चारों सम्प्रदाय एक मंच पर आ जायेंगे और जिनशासन का विगुल चारों दिशाओं में बज उठेगा ।" तीनों संतों ने भी जयपुर पधारने की भावना व्यक्त की । लेकिन कौन जानता था कि दुग्गड़जी की भावना पूरी नहीं हो सकेगी। भवितव्यता कुछ और ही थी। कोटा वर्षावास जैन दिवाकरजी महाराज का अन्तिम चातुर्मास होगा और संघ ऐक्य की योजना धरी की धरी रह जायगी । दिवाकरजी का ऊर्ध्वगमन नीचे एक फुन्सी कोटा चातुर्मास पूर्ण होने में अभी १५ दिन शेष थे। आपकी नाभि के हो गई। पीड़ा बढ़ती गई । ज्वर भी हो गया । श्रद्धालुभक्तों ने चातुर्मास के बाद भी विहार न करने की प्रार्थना की। लेकिन आपका तन ही अस्वस्थ था; आत्मा नहीं । स्वस्थ- सबल आत्मा साधुचर्या में ढील नहीं आने देती । चातुर्मास का समय पूरा होते ही कोटा नगर से विहार करके आप नयापुरा के नन्दभवन में पधारे। यहाँ स्वास्थ्य और गिरा। लघुशंका परठते समय श्रीचन्दन मुनिजी को उसमें रक्त-बिन्दु दिखाई दिए तुरन्त उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज को सूचित किया गया। उपाध्यायश्री ने डाक्टर बुलवाया। डॉक्टर मोहनलालजी ने पेट में फोड़े की आशंका की । कोटा श्रीसंघ चिन्तित हो गया। सभी संत सेवा में जुट गए, लेकिन रुग्णता बढ़ती गई । रुग्णता का समाचार बिजली के समान भारत भर में फैल गया। श्रद्धालुभक्त मोटर, रेल, विमान आदि के द्वारा आने लगे । स्वर्गवास से तीन दिन पहले आपने उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज से दवाई लेने की अनिच्छा प्रगट की । इस अवसर पर कई सन्त आपकी सेवा में तन-मन से लगे हुए थे । सेवामूर्ति तपस्वी श्री मोहनलालजी ने जो अग्लान भाव से सेवा की, वह चिरस्मरणीय रहेगी । मार्गशीर्ष शुक्ला ६, रविवार की प्रातः बेला में पं० मुनि श्री प्रतापमलजी महाराज, प्रवत्तंक पं० श्रीहीरालालजी महाराज के परामर्श से जैन दिवाकरजी महाराज को उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज ने संथारा करवा दिया। कुछ मुनिगण शौच आदि शारीरिक कृत्यों से निवृत्त होने गए। उनके लौटने से पहले ही गुरुदेव ने शरीर त्याग दिया । दिवाकर अस्त होता है, नीचे को गमन करता है और जैन दिवाकरजी महाराज के ज्ञानपुंज आत्मा ने ऊपर की ओर ऊर्ध्वगमन किया। Jain Education International आपनी के देह की अन्तिम यात्रा नन्दभवन से प्रारम्भ होकर नयापुरा, लाड़पुरा सदर बाजार, घण्टाघर आदि स्थानों पर होती हुई स्वर्गीय सेठ केसरीसिंह जी बाफना की बगीची में उनकी छतरी के निकट चम्बल के तट पर पहुंची। अन्तिम यात्रा में १५-२० हजार से अधिक श्रद्धालुजनों की भीड़ थी। सभी ने श्रद्धा के पुष्प और आंसुओं का अर्घ्य दिया। मुनि श्री चौथमलजी महाराज का पार्थिव शरीर भस्म हो गया । ऑल इण्डिया रेडियो पर आपके स्वर्गगमन का समाचार प्रसारित हुआ तो सबके मुख से ऐसे उद्गार निकले - ' ऐसे सन्त सैकड़ों वर्षों में अवतरित होते हैं ।' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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