SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ - एक पारस पुरुष का गरिमामय जीवन १६ एक दिन एक शिष्य ने आपसे कहा"गुरुदेव ! अपनी सम्प्रदाय की आचार्य आदि पदवियाँ समर्पित करके हमें क्या मिला ? हम तो घाटे में ही रहे।" -- आपने समझाया "हमें वणिवृत्ति से घाटा नफा नहीं सोचना चाहिए। संघ-लाभ के लिए सर्वस्व समर्पण करना भी उचित है | आज का बीज जब वृक्ष बनेगा तब एकता के मधुर फल आएँगे ।” इन शब्दों से प्रकट होता है कि जैनदिवाकरजी महाराज का हृदय कितना उदार था और कितनी निष्ठा थी संघ एकता के प्रति ! अगर बात मान लेता रामपुरा की ही एक घटना है। प्रभात बेला में एक धावक आपके पास आया और चरणस्पर्श करके मांगलिक सुनने की इच्छा प्रगट की। आपने मांगलिक सुनाकर कहा- 'भद्र ! जाने से पहले नवकार मन्त्र की एक माला फेर लो ।' श्रावक जल्दी में था, बोला- "मैं नित्य सामायिक करता हूँ । उसी समय नवकार मन्त्र की माला भी फेर लेता हूँ । इस समय जल्दी में हूँ ।' और वह चला गया । घर पहुंचा तो दरवाजे पर पुलिस का सिपाही खड़ा मिला। दरोगाजी बुला रहे हैं' सिपाही के मुँह से ये शब्द सुने तो उसके साथ जाना ही पड़ा। थाने में उस समय दरोगाजी नहीं थे । श्रावक को बैठना पड़ा । शाम को चार बजे जब दरोगाजी आए तब पता चला कि उन्होंने तो उसके नामराशि किसी अन्य व्यक्ति को बुलाया था, लेकिन नाम भ्रान्ति के कारण पुलिस वाले उसे ही बुला लाये । आखिर सायंकाल छुट्टी मिली। अब आवकजी को ध्यान आया कि 'महाराज साहब ने तो पहले ही भविष्य की ओर संकेत कर दिया था। मेरी ही भूल हुई। अगर गुरुदेव की बात मान लेता'''' ।' उसने स्थानक में आकर अपनी मूल स्वीकार की और संतों के वचन के अनुसार आचरण करने का निश्चय कर लिया । रतलाम से नागदा सुमेल होकर आपश्री भाणपुरा पधारे। तीनों जैन सम्प्रदायों ने मिलकर ऋषभ जयन्ती मनाई। ऋषभदेव भगवान को किसी न किसी रूप में सभी धर्म मानते हैं - यह आपस विस्तृत रूप में यहाँ बताया। सधवाड़ के अनेक गाँवों में त्याग, प्रत्याख्यान और धर्म प्रचार हुआ । समता के सागर सं० २००७ का चातुर्मास करने के लिए आपके चरण कोटा की ओर बढ़ रहे थे। मार्ग में आपश्री रामगंज मंडी में रुके प्रवचन होने लगे। उसी समय श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के एक आचार्य भी वहाँ पधारे श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के कुछ प्रतिष्ठित सज्जनों ने एक मंच से प्रवचन देने की प्रार्थना की । आपने सहर्ष स्वीकृति दे दी । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यश्री ने जैन दिवाकरजी महाराज की कुछ अनर्गल आलोचना की। उसके बाद आपका प्रवचन हुआ। आलोचना के प्रति आपने एक शब्द भी न कहा केवल वीतराग वाणी ही सुनाई। आपके व्याख्यान से श्रोता बहुत प्रभावित हुए। दोपहर को मुनि श्री मनोहरलालजी महाराज ( मस्तरामजी) ने आपसे पूछा – 'आपने खोटी आलोचना का उत्तर क्यों नहीं दिया ?' तो आपने फरमाया-'मुनिजी ! जनता वीतराग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy