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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ७४: बृहत्साधु-सम्मेलन मनमाड़ के वर्षावास में बम्बई के स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स के अग्रगण्य पदाधिकारी श्री बेलजी लखमशी नप्पू, दुर्लभजी भाई जौहरी आदि ने आपको अजमेर में होने वाले बृहत्साधु-सम्मेलन में पधारने का निमंत्रण दिया। उस पर आपने अपनी स्वीकृति दे दी। लेकिन इस सम्मेलन से पहले अपने सम्प्रदाय के साधुओं का सम्मेलन आवश्यक समझा गया। इस सम्मेलन का स्थान भीलवाड़ा निश्चित हुआ। जैन दिवाकरजी महाराज मनमाड़ चातुर्मास पूर्ण करने के पश्चात् धूलिया आदि स्थानों को पवित्र करते हुए भीलवाड़ा पधारे । अन्य सन्त पहले ही आ चुके थे। पूज्यश्री मन्नालालजी महाराज, भावी पूज्यश्री खूबचन्दजी महाराज भी उपस्थित थे। अजमेर सम्मेलन में भाग लेने वाले सन्तों का चुनाव हुआ। उनमें आप भी थे। भीलवाड़े से अनेक नगरों में होते हुए आप ब्यावर पधारे। वहाँ सम्मेलन में भाग लेने के लिए पंजाब, काठियावाड़, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि प्रान्तों से मुनिराज पधारे हुए थे। सभी के साथ आपका प्रेम वात्सल्य रहा । फिर आप अजमेर पधारे । अजमेर के बृहत्साधु-सम्मेलन में आपने अपने सम्प्रदाय के प्रतिनिधि की हैसियत से भाग लिया । सम्मेलन की प्रत्येक कार्यवाही में उचित राय देते रहे। पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज के दोनों सम्प्रदाय भी आपकी प्रेरणा से ही एक हए । इस सम्मेलन में आपकी समन्वयकारी दृष्टि ही प्रमुख रही। साधु-सम्मेलन समाप्त होने के बाद कान्फ्रेंस के खुले अधिवेशन में आपने जैन समाज में फैली कुरीतियों पर प्रहार किया। जैन समाज में जागृति लाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया । अनमेल-विवाह, फिजलखर्ची, दहेज आदि प्रथाओं से होने वाली हानियों पर प्रकाश डाला। अड़तीसवां चातुर्मास (सं० १६६०) : ब्यावर अजमेर से आप किशनगढ़ पधारे। तत्कालीन नरेश श्री यज्ञनारायणसिंह जी ने आपका प्रवचन सुना। प्रभावित होकर राज्य भर में बैसाख बदी ११ तथा चैत सुदी १३ को अगता पलवाने का वचन दिया। दरबार ने आहार और वस्त्र बहराने की भावना प्रकट की। सूर्यास्त का समय निकट होने से आहार तो नहीं लिया किन्तु दरबार की उत्कृष्ट भावना देखकर थोड़ा वस्त्र लिया। यहाँ श्री जैन सागर पाठशाला चल रही थी। मुनिश्री ने छात्रों की परीक्षा ली। उसमें हिन्दू, मुसलमान, हरिजन आदि की छूआछुत रहित पढ़ाई और जैनधर्म के प्रति छात्रों का पूज्य भाव देख कर मुनिश्री ने प्रसन्नता प्रकट की। अनेक गाँवों में विचरण करते हुए चातुर्मास के लिए ब्यावर पधारे । रायली कम्पाउण्ड में आपका चातुर्मास हआ। तपस्वी श्री मयाचन्दजी महाराज ने यहां भी तपस्या की। अच्छा धर्म हुआ । सेठ कुन्दनमलजी लालचन्दजी कोठारी, सेठ कालुरामजी कोठारी, सेठ सरूपचन्दजी तलेसरा, श्री चांदमलजी टोडरवाल, श्री छगनमलजी बस्तीमलजी, श्री चांदमलजी कोठारी, सेठ अभयराज जी नाहर, श्री पूनमचन्द जी बाबेल आदि ने धर्मध्यान का बहत लाभ लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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