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________________ : ६५ : उदय : धर्म-दिवाकर का || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ "यह कैसे हो सकेगा ? रात के नौ बजे हैं। अब मैं क्या कर सकूँगा ?"-भंडारी जी ने निराश स्वर में कहा "निराश न बनो । अच्छे काम में लग जाओ। सफलता मिलेगी।" आपने मंडारी जी को साहस बँधाया। "गुरुदेव ! आपके मांगलिक पर मुझे पूर्ण विश्वास है । मांगलिक सुनाइये अवश्य सफलता मिलेगी।" भंडारीजी ने आशा भरे शब्दों में अपने उद्गार व्यक्त किये। गुरुदेव ने मांगलिक सुनाकर भंडारीजी से कहा "जाकर हमारी तरफ से उस घोषणा करने वाले अधिकारी से साफ-साफ कह दो कि हिंसा से मलिन हृदयों की पुकार इष्टदेवों तक कभी नहीं पहुंच सकती। मूक पशुओं की गरदनों पर छुरी चलाने वालों की प्रार्थना कभी स्वीकार नहीं होती।" श्री विलमचन्दजी भंडारी ने साहस करके स्टेट के प्राइम मिनिस्टर से महाराजश्री का संदेश कह दिया। पहले तो प्राइम मिनिस्टर कहने लगा कि अब कुछ नहीं हो सकता। लेकिन जैसे ही उसकी लेडी (धर्मपत्नी) ने सुना तो उसका हृदय पसीज गया, साहब से बोली "एक साधुजी महाराज ने कहा है तो उनकी बात माननी ही चाहिए। आपके हाथ में कलम है । रात हो गई तो क्या हुआ, हुक्म तो आपका ही चलेगा।" साहब को भी सद्बुद्धि जागी । उसने दूसरी घोषणा उसी समय कराई "जैन मुनि श्री चौथमलजी के सुझाव पर कल सभी कत्लखाने बन्द रहेंगे। इस आज्ञा का दृढ़तापूर्वक पालन होगा।" हजारों पशुओं के प्राण बच गए। [कुछ वर्षों बाद श्री विलमचन्द जी भंडारी ने यह बात स्वयं सुनाई थी जब हम लोग उनके बंगले पर ठहरे हुए थे। संयोग अथवा अहिंसा का प्रभाव ! दूसरे दिन ही जमकर जलवृष्टि हुई। मेघों ने शांति की धारा ही बहा दी । जनता और धरती दोनों ही तृप्त हुए। लोगों ने अहिंसा भगवती के जयकारों से धरा-गगन गुंजा दिये। गुरुदेव ने श्रावण सुदि १४ के व्याख्यान में कहा कि तुम लोग पर्युषण पर्व में जीवदया का पालन सरकार द्वारा या अन्य लोगों से करवाते हो, किन्तु तुम स्वयं तो अपना धन्धा बन्द करते नहीं। तब जैनेतर लोग जीवदया पालने में क्यों नहीं आनाकानी करें ? इसलिए सबसे पहले जब तुम धन्धा बन्द रखोगे और फिर अन्य लोगों को बन्द रखने को कहोगे तब तुमको इसमें सफलता मिलेगी। जैन दिवाकरजी की इस बात का समर्थन जोधपुर में विराजमान अन्य मुनिवरों ने भी अपने-अपने व्याख्यानों में किया। इन व्याख्यानों और गुरुदेव की वाणी से प्रेरित होकर ओसवाल भाइयों ने मिलकर लिखित नियम बना दिया कि 'पर्युषण के दिनों में ८ दिन या संवत्सरी अलग-अलग हो तो ६ दिन किसी भी प्रकार का व्यापार नहीं करना । कोई कदाचित् इस नियम का भंग करेगा तो उसको २१ रुपया दण्ड दिया जायगा जो जीवदया खाते में भरना पड़ेगा।' यह छपी हई सूचना सोजत पहुँचने पर वहाँ के सज्जनों ने भी इसका अनुकरण किया । अपने गांव में पर्युषण पर्व के दिनों के लिए ऐसा ही नियम बना दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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