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________________ गुरुदेवका आशीर्वाद .पं. गोविन्ददास कोठिया, अहार (म० प्र०) श्री वीर-विद्यालय पपौरामें सन १९३७ का वह मंगल प्रभात मेरे लिए वरद सिद्ध हआ, श्री गुरुदेवने जब मुझसे कहा कि तुम पाठ्यग्रन्थोंके अतिरिक्त न्यायसम्बन्धी अन्य ग्रन्थ भी मुझसे पढ़ लेना, ऐसा अवसर सम्भवतः फिर नहीं मिलेगा। मैंने आज्ञा मानी, फलत कई न्याय-विषयक ग्रन्थोंको पढ़ा, न्याय जैसे क्लिष्ट विषयको डा० कीठियाजीने मेरे लिए बिलकुल ही सरल बना दिया। मेरे जीवनमें सचमुच ही नयी रोशनी आयी। कोई विषय मेरे सामने अध्यापन-समय आया; मैंने उसे भली-भाँति छात्रोंको हृदयंगम कराया, यह सब श्री गुरु देवका ही आशीर्वाद है। १९४० में जब मैं न्यायतीर्थ परीक्षामें उत्तीर्ण हुआ तो गुरुदेवने मुझसे कहा कि तुम इसे साध्य मत समझ लेना, इसे साधन ही मानना । मैंने अक्षरशः पालन किया, फलतः साहित्य-साधनामें जुटा रहा । अभी भी मैं उसी लगनसे साहित्यिक साधनामें तत्पर हूँ। पूज्य गुरुदेव मुझसे दूर रहते हैं, परन्तु मैं तो उन्हें अपने पास ही पाता हूँ । पूज्य गुरुदेव शतायुः हों, ऐसी मेरी हार्दिक कामना है।। विनयकी जीवन्त मूर्ति .श्री जयकुमार इटोरया, श्री वीरेन्द्र कुमार इटोरया. दमोह श्रद्धेय पंडितप्रवर श्री कोठियाजी अखिल भारतीय समाजकी उस प्रथम पवितकी वरिष्ठ विद्वत्पीढ़ीके अग्रगण्य प्रतिनिधि मनीषी हैं, जिन्हें युगद्रष्टा प्रातःस्मरणीय परम पूज्य सन्त श्री गणेशप्रसादजी वर्णी महाराजका सुदीर्घकाल तक प्रत्यक्ष सान्निध्य और मार्गदर्शन तो प्राप्त हआ ही, वर्णी विचारधाराको विकसित तथा प्रचारित करनेका सुयोग भी अनवरत प्राप्त हुआ है । पैनी-गहरी दृष्टिके धनी विनम्रताकी मति, समाज-साहित्य, अध्यात्म-संस्कृति, छात्र-विद्वान-वती-तीर्थायतन आदि सभीकी सेवाभावना से ओत-प्रोत माननीय श्री कोठियाजी विगत अर्ध शतकसे अटूट निष्ठा, सुदृढ़ संकल्प और सर्वोच्च अध्यवसायको आत्मसात् किए हुए महान् सेवाव्रती हैं । और वाग्देवीके वरिष्ठ आराधकके रूपमें सर्वत्र विश्रुत वे व्यक्ति नहीं, संस्था हैं। उनके कुशल निर्देशमें अनेक संस्थाओंने सर्वोच्च ऊँचाई पाई । विद्वत्परिषदके गरिमा मण्डित-शिवपुरी अधिवेशनकी अध्यक्षतासे प्रारम्भ हुए आपके समग्र अध्यक्षकालको उसका "स्वर्णयुग" ही कहेंगे। इस अवधिमें विद्वत्परिषद्ने अनेकमुखी कार्य-कलाप सम्पन्न किये । कोठियाजीकी विद्वत्ता, क्षमता और प्रतिभाका भरपुर उपयोग विविध समाजोपयोगी कार्यों में भी सदैव दृष्टिगोचर होता है। अतः ऐसे महान् साधक, समाजसेवी और श्रमण-दर्शनके अप्रतिम विद्वान्के प्रति हम सादर श्रद्धावनत है।। अनेकानेक मंगल-कामनाएं •श्री प्रेमचन्द शाह, बीना शुभ्र श्वेत वस्त्रोंमें शालीन-मझोली, काय लिए यदि कोई पण्डित ताँगासे उतरता तो हम लोग समझ जाते कि "भैया" आ गये । यह सम्बोधन हम लोगोंका कोठियाजीके लिए ही है । अत्यन्त विनोदी और बालस्वभावके लिए अत्यन्त स्नेहिल विरल छविका कोई पंडित भी होता है, यह मैं बचपनमें नहीं जानता था। आज जहाँ तक ज्ञान और चरित्रका संतुलन और लोकरूढ़ताको तोड़ता हआ व्यक्तित्व डा० कोठियाजीको एक अलग पहचान मेरे लिए है। निःसंदेह प्रौढ़ पीढ़िके विद्वानोंकी यशस्वी शृंखलामें आदरणीय कोठियाजी अगली पंक्तिके विद्वान, वक्ता और सुलेखक हैं। साथ ही रुचिसम्पन्न होनेके नाते समाजके चतुर्मखी विकास में अपना योगदान देने वाले महाजन -४९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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