SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपपौराजी : जिनमन्दिरोंका अद्भुत समुच्चय भारतीय जन-मनकी सुदृढ़ धार्मिक रुचिका साकार रूप देखना हो, तो इन पवित्र भूमियोंको देखिए, जहाँ पहुँचकर हम अपनी मानस-कालिमाको धोकर शान्तिके सुखद प्रवाहमें गोता लगाने लग जाते हैं । ये पुण्य-भूमियां भारतीय संस्कृति की प्रतीक हैं । दृश्य काव्यके समान ये पवित्र तीर्थक्षेत्र भी आह्लादजनक होते हैं और अध्यात्मकी ओर अग्रसर करते हैं। इन तीर्थक्षेत्रोंपर निर्मित देवालयों आदिकी कलामय कारीगरी भी तत्कालीन स्थापत्य कलाके गौरव और गरिमाको प्रकट करती हुई दर्शकके मनपर अमिट प्रभाव डालती है। देशके अस्सी प्रतिशत उत्सव, सभाएँ और मेले इन्हीं तीर्थक्षेत्रोंपर सम्पन्न होते हैं । भारतीय समाजको ये तीर्थक्षेत्र जीवन प्रदान करते तथा उसकी गरिमामय संस्कृतिका प्रतिनिधित्व करते है, इनका समाजसे बहुत धनिष्ठ सम्बन्ध है । इसीसे भारतके कोने-कोने में इनका अस्तित्व पाया जाता है । एक तरफ पुरी है तो दूसरी तरफ द्वारिका, एक ओर सम्मेदाचल है तो दूसरी ओर गिरनार । बुन्देलखण्ड भारतका मध्यक्षेत्र हृदय है। यह आचारमें उन्नत और विचारमें कोमल तो है ही, धार्मिक श्रद्धा भी अपूर्व है। वीरत्व भी इसकी भूमिमें समाया हुआ है । यहाँ अनगिनत तीर्थ क्षेत्र हैं। उनकी आभासे यह सहस्रों वर्षोंसे अलोकित है । जिस ओर जाइये उसी ओर यहाँ तीर्थ भूमियाँ मिलेंगी । द्रोणगिर, रेशिन्दीगिर और सोनागिर जैसे जहाँ सिद्धक्षेत्र हैं वहाँ देवगढ़, पपौरा, अहार, खजुराहो जैसे अतिशय क्षेत्र भी हैं। देवगढ़ और खजुराहोकी कला इसके निवासियोंके मानसकी आस्था और निष्ठाको व्यक्त करती है तो द्रोणगिर और रेशिन्दीगिरकी प्राकृतिक रमणीयता दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है । अहार क्षेत्रकी विशाल और भव्य शान्तिनाथमूर्ति हमारी निष्ठा और आकर्षणको द्विगुणित कर देती है। श्रीपपौराजीके उत्तुंग एवं विशाल शिखरबन्द भव्य जिनालय दूरसे ही हमें आह्वान करते हैं । टीकमगढ़ (म० प्र०) से तीन मील दूर दक्षिण-पूर्वमें यह पुण्य तीर्थ अवस्थित है। इसकी पश्चिम दिशामें विशाल सिंहद्वार है जो सौम्य आकृतिसे हमारी भावनाओंको पहलेसे ही परिवर्तित करने लगता है। तीर्थ के चारों ओर विस्तृत प्राकार है, जिसके भीतर समतल मैदानमें १०७ विशाल जिनालय निर्मित हैं । इनमें अनेक जिनालय शताब्दियों पूर्वके हैं । यहाँकी चौबीसी उल्लेखनीय है । प्रत्येककी परिक्रमा पृथक्-पृथक् और सबकी एक संयुक्त है। छोटी-छोटी वाटिकाओं, कुओं और धर्मशालाओंसे यह क्षेत्र बहुत ही मनोरम एवं सुशोभित है। वातावरण एकदम शान्त और साधनायोग्य है । आकाशसे बातें करते हुए १०७ शिखरबन्द जिनमन्दिरोंकी शोभा जनसाधारणकी भावनाओं और भक्तिको विराट् बना देती है। जिनप्रतिमाएं अपनी मूकोपदेशों द्वारा स्निग्ध एवं शीतल शान्तरसकी धारा उड़ेलती है। उस समय दर्शकका मन आनन्द-विभोर होकर घंटों भक्तिमें तल्लीन हो जाता है। __यद्यपि प्रदेश आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टिसे पिछड़ा हुआ है, किन्तु उसकी धार्मिक भावनाएँ प्रोन्नत हैं, जिनका परिचय यहाँके कार्योंसे मिल जाता है । क्षेत्रके वार्षिक मेलेपर एकत्र होकर समाज अपनी दिशाको पहचानने और समस्याओंको सुलझानेका यहाँ अवसर प्राप्त करती है। -४७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy