SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तपस्या और त्याग आपकी तपस्या और त्याग अद्वितीय रहे । सन् १९२४ में आपने जयपुरमें वहाँके अनाजोंकी भाषाका ज्ञान न हो सकनेसे ८ माह तक लगातार केवल कढ़ीका आहार लिया । सन् १९३१ में देहलीमें प्रथम चातुमासमें २१ दिन तक उपवास और बादमें डेढ़ माह तक केवल छाछ ग्रहण की । सन् १९३३ में सरधना (मेरठ) के चातुर्मास में ३६ दिन तक सिर्फ नीवका रस लिया । मेरठमें दो माह तक लगातार केवल गन्नेका रस ग्रहण किया । सन् १९४० में जेर (गुजरात) के चौमासेमें साढ़े छह महीनोंमें सिर्फ २९ दिन आहार और शेष दिनों १६४ उपवास किये। यह सिंह-विक्रीडत व्रत है। सन १९४१ में टांकाटका (गजरात) में चौमासे में सर्वतोभद्र व्रत किया, जिसमें एक उपवाससे सात उपवास तक चढ़ना और फिर सातसे क्रमशः एक उपवास तक आना और इस तरह साढ़े आठ महीने में केवल ४९ आहार और २४५ उपवास किये । सन् १९४७ में अजमेरमें ढाई माह तक जलका त्याग और केवल छाछका ग्रहण किया। सन् १९४८ में व्यावरमें केवल अन्न (दाल-रोटी) का ग्रहण और जलका त्याग किया। सन् १९३५ में देहलीमें दूसरे चातुर्मास में लगातार चारचार उपवास किये और इस तरह कई उपवास किये। सन् १९५२ में भी तीसरे चातुर्मासके आरम्भमें देहलीमें आपने २० दिन तक अन्न और जलका त्याग किया तथा सिर्फ फल ग्रहण किये। महीनों आपने सिर्फ एक पैरके बलपर रहकर तपस्या की। _ नमकका त्याग तो आपने कोई २७, २८ वर्षकी अवस्थामें ही कर दिया था और छह रसका त्याग भी आपने पौने दो वर्ष तक किया। इस तरह आपका तमाम साधुजीवन त्याग और तपस्यासे ओत-प्रोत ध्यान और ज्ञान बागपत (मेरठ) में जब आप एक डेढ़ माह रहे तो वहाँ जमनाके किनारे चार-चार घंटे ध्यानमें लीन रहते थे। बड़ेगाँव (मेरठ) में जाड़ोंमें अनेक रात्रियाँ छतपर बैठकर ध्यानमें बितायीं । पावागढ़ (बड़ोदा), तारंगा आदिके पहाड़ोंपर जाकर वहाँ चार-चार घंटे समाधिस्थ रहते थे। तपोबलका प्रभाव और महानता आपके जीवनकी अनेक उल्लेखनीय विशेषताएं हैं। जोधपुर में आपके नेत्रोंकी ज्योति चली गई और इससे जनतामें सर्वत्र चिन्ताकी लहर फैल गई. किन्तु आप इस दैविक विपत्तिसे लेशमात्र भी नहीं घबराये • और आहार-जलका त्यागकर समाधिमें स्थित हो गये। अन्तमें सातवें दिन आपको अपने तपोबल और आत्मनिर्मलताके प्रभावसे आँखोंकी ज्योति पुनः पूर्ववत् प्राप्त हो गई। उस मरुभूमिमें ग्रीष्मऋतुमें, जहाँ दर्शकोंके पैरोंमें फोले पड जाते थे, बालमें तीन-तीन घंटे आप ध्यान करते थे। पीपाड़ (जोधपुर) में ५००० हजार हरिजनोंको वैयावृत्य तथा दर्शन करनेका आपने अवसर दिया तथा उनकी इच्छाको तप्त करके धर्मपूर्वक अपना जीवन बितानेका उन्हें सन्देश दिया। १५ दिसम्बर १९५० में जब आपको आहारके लिये जाते समय मालूम हुआ कि संयुक्त भारतके महान् निर्माता स्व० उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेलका बम्बईमें देहावसान हो गया तो आपने आहार त्याग दिया और उपवास किया । आप कितने गुणग्राही, निस्पृही और विनयशील रहे, यह आपके द्वारा चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज और श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यको लिखे गये पत्रोंसे विदित होता है और जिनमें उनकी गुणग्राहकता और विनयशीलताका अच्छा परिचय मिलता है। - ४५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy