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________________ आगे लिखा है : पंडिदपंडिदमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो। विरदाविरदा जीवा मरंति तदिएण मरणेण ॥२८।। पाओपगमणमरणं भत्तप्पण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पंडियमरणं साहस्स जहत्तरियस्स ।।२९।। अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि । मिच्छादिट्ठी य पूणो पंचमए बालबालम्मि ।।३०।। अर्थात् च उदहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग-केवली भगवान्के निर्वाण-गमनको पण्डितपण्डितमरण, देशव्रती श्रावकके मरणको बालपण्डितमरण, आचारांगशास्त्रानुसार चारित्रके धारक साधु-मुनियोंके मरणको पण्डितमरण, अविरतसम्यग्दृष्टिके मरणको बालमरण और मिथ्याष्टिके मरणको बालबालमरण कहा गया है। भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गिनी और प्रायोपगमन ये तीन पण्डितमरणके भेद है। इन्हीं तीन भेदोंका ऊपर संक्षेपमें वर्णन किया गया है । आचार्य शान्तिसागर द्वारा इंगिनीमरण संन्यासका ग्रहण __ आचार्य शान्तिसागरजीने समाधिमरणके इस महत्त्वको अवगत कर उपर्युक्त पण्डितमरणके दूसरे भेद इङ्गिनीमरण व्रतको ग्रहण किया । यद्यपि महाराज ५ वर्षसे पडितमरणके पहले भेद भक्तप्रत्याख्यानके अन्तर्गत सविचारभक्तप्रत्याख्यानका, जिसकी उत्कृष्ट अवधि १२ वर्ष है, अभ्यास कर रहे थे। किन्तु शरीरकी जर्जरता व नेत्रज्योतिकी अत्यन्त मन्दतासे जब उन्हें अपना आयकाल निकट जान पड़ा तो उन्होंने उसे इङ्गिनीमरणके रूपमें परिवर्तित कर दिया, जिसे उन्होंने ३५ दिन तक धारण किया। महाराजने स्वयं दिनांक १७-८-५५ को मध्याह्नमें २।। बजे सेठ बालचन्द्र देवचन्द्र जी शहा, सेठ रावजी देवचन्द्र जी निम्बरगीकर, संघपति सेठ गेंदनमलजी, सेठ चन्दूलालजी ज्योतिचन्द्रजी, श्री बण्डोवा रत्तोवा, श्री बाबूराव मारले, सेठ गुलाबचन्द्र सखाराम और रावजी बापूचन्दजी पंढारकरको आदेश करते हुए कहा था कि 'हम इङ्गिनीमरण संन्यास ले रहे हैं, उसमें आप लोग हमारी सेवा न करें और न किसीसे करायें।' महाराजने यह भी कहा था कि 'पंचम काल होनेसे हमारा संहनन प्रायोपगमन (पण्डितमरणके तीसरे भेद) को लेने के योग्य नहीं है, नहीं तो उसे धारण करते ।' यद्यपि किन्हीं आचार्योंके मतानुसार इङ्गिनीमरण संन्यास भी आदिके तीन संहननके धारक ही पूर्ण रूपसे धारण कर सकते हैं तथापि आचार्य महाराजने आदिके तीन संहननोंके अभावमें भी इसे धारण किया और ३५ दिन तक उसका निर्वाह किया, जिसका अवलोकन उनके सल्लेखनामहोत्सवमें उपस्थित सहस्रों व्यक्तियोंने किया, वह 'अचिन्त्यमोहितं महात्मनाम्' महात्माओंकी चेष्टाएँ अचिन्त्य होती हैं, के अनुसार विचारके परे है। समाधिमरणमें आचार्यश्रीके ३५ दिन समाधिमरणके ३५ दिवसोंमें आचार्यश्रीकी जैसी प्रकृति, चेष्टा एवं चर्या रही उससे आचार्य महाराजके धैर्य, विवेक, जागृति आदिकी जानकारी प्राप्त होती है । १९ दिन तो हम स्वयं उनके पादमूलमें कुंथलगिरि रहे और प्रतिदिन नियमित दैनंदिनी (डायरी) लिखते रहे तथा शेष १६ दिवसोंकी उनकी चर्यादिको अन्य सूत्रोंसे ज्ञात किया। १८ सितम्बर ५५, रविवारको-प्रातः ६-४५ बजे श्री लक्ष्मीसेनजी भट्रारकने अभिषेकजल ले जाकर कहा-'महाराज ! अभिषेकजल है ।' महाराजने उत्तर दिया 'हूँ और उसे उत्तमांगमें लगा लिया। इसके ५ मिनट बाद ही ६-५० बजे उन्होंने शरीर त्याग दिया। शरीरत्यागके समय महाराज पूर्णतः जागृत और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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