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________________ उनका कोई असर न हो, प्रत्युत व्याधिको वृद्धि ही हो, तो ऐसी स्थितिमें उस शरीरको दुष्टके समान छोड़ देना ही श्रेयस्कर है । अर्थात् समाधिमरण लेकर आत्मगुणोंकी रक्षा करनी चाहिये ।' 'शीघ्र मरण सूचक शरीरादिके विकारोंद्वारा और ज्योतिषशास्त्र, एवं शकुनविद्या आदि निमित्तोंद्वारा मृत्युको सन्निकट जानकर समाधिमरणमें लीन होना बुद्धिमानोंका कर्तव्य है। उन्हें निर्वाणका प्राप्त होना दूर नहीं रहता।' इन उद्धरणोंसे सल्लेखनाका महत्व और आवश्यकता समझमें आ जाती है। एक बात और है वह यह कि कोई व्यक्ति रोते-विलपते नहीं मरना चाहता । यह तभी सम्भव है जब मृत्युका अकषायभावसे सामना करे । नश्वर शरीरसे मोह त्यागे। पिता, पुत्रादि बाह्य पदार्थोसे राग-द्वेष दूर करे। आनन्द और ज्ञानपूर्ण आत्माके निजत्वमें विश्वास करे। इतना विवेक जागृत होनेपर मुमुक्षु श्रावक अथवा साधु सल्लेखनामरण, समाधिमरण या पंडितमरण या वीरमरण पूर्वक शरीर त्याग करता है । समाधिमरणपूर्वक शरीरत्याग करनेपर विशेष जोर देते हुए कहा है :-- यत्फलं प्राप्यते सद्भिर्वतायासविडम्बनात् । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मत्युकाले समाधिना ।। तप्तस्य तपसश्चापि, पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्र तस्यापि फलं मृत्युः समाधिना ।। 'जो फल बड़े-बड़े व्रती पुरुषोंको कायक्लेश आदि तप, अहिंसादि व्रत धारण करनेपर प्राप्त होता है वह फल अन्त समयमें सावधानी पूर्वक किये हुए समाधिमरणसे जीवोंको सहजमें ही प्राप्त हो जाता है। अर्थात् जो आत्मविशुद्धि अनेक प्रकारके तपादिसे होतो है वह अन्त समयमें समाधिपूर्वक शरीर त्यागनेपर प्राप्त हो जाती है।' __ 'बहुत काल तक किये गये उग्र तपोंका, पाले हुए व्रतोंका और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्रज्ञानका एक मात्र फल शान्तिपूर्वक आत्मानुभव करते हुए समाधिमरण करना है । इसके बिना उनका कोई फल प्राप्त नहीं होता-केवल शरीरको सुखाना या ख्यातिलाभ करना है।' इससे स्पष्ट है कि सल्लेखनाका कितना महत्त्व है। जैन लेखकोंने इसपर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। 'भगवती आराधना' इसी विषयका एक प्राचीन ग्रन्थ है, जो प्राकृत भाषामें लिखा गया है और जिसका रचनाकाल डेढ़-दो हजार वर्षसे ऊपर है । इसी प्रकार 'मृत्युमहोत्सव' नामका संस्कृत भाषामें निबद्ध ग्रंथ है, जो बहुत ही विशद और सुन्दर है । आचार्य समन्तभद्रने लिखा है उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ 'जिसका कुछ उपाय शक्य न हो, ऐसे किसी भयङ्कर सिंह आदि द्वारा खाये जाने आदिके उपसर्ग आ जानेपर, जिसमें शुद्ध भोजन-सामग्री न मिल सके, ऐसे दुष्कालके पड़नेपर, जिसमें धार्मिक व शारीरिक क्रियाएँ यथोचित रीतिसे न पल सकें, ऐसे बुढ़ापेके आ जानेपर तथा किसी असाध्य रोगके हो जानेपर धर्मकी रक्षाके लिये शरीरके त्याग करनेको सल्लेखना (समाधिमरण--साम्यभावपूर्वक शरीरका त्याग करना) कहा गया है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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