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________________ प्रार्थना स्वीकार कर अपना अन्तिम भाषण दिया, जो मराठीमें २२ मिमट तक हुआ और जिसे रिकार्ड करा लिया गया । आचार्यश्रीने समाजका लगभग अर्ध-शताब्दी तक मार्गदर्शन किया, देशके एक छोरसे दूसरे छोरतक पाद-विहार करके उसे जागृत किया और शतब्दियोंसे ज्योतिहीन हए दि० मनिधर्म-प्रदीपको प्रदीप्त किया। इस दुषमाकालमें उन्होंने अपने पवित्र एवं यशस्वी चारित्र, तप और त्यागको भी निरपवाद रखते हुए निर्ग्रन्थरूपको जैसा प्रस्तुत किया वैसा गत कई शताब्दियोंमें भी नहीं हुआ होगा। उनके इस उपकारको कृतज्ञ समाज चिरकाल तक स्मरण रखेगी। हमें आचार्यश्रीके सल्लेखना-महोत्सव में २५ अगस्तसे २९ अगस्त तक और ६ सितम्बरसे १९ सितम्बर तक उनके देहत्याग तथा भस्मोत्थानक्रिया तक १९ दिन श्री कुंथलगिरिमें रहनेका सौभाग्य मिला। एक महान क्षपकके समाधिमरणोत्सवमें सम्मिलित होना आनन्दवर्धक ही नहीं, अपितु निर्मल परिणामोत्पादक एवं पुण्यवर्धक माना गया है। महाराजने ३५ दिन जितने दीर्घकाल तक सल्लेखनाव्रत धारणकर उसके चिन्त्य महत्त्व और मार्गको प्रशस्त किया तथा जैन इतिहासमें अमर स्थान प्राप्त किया। आचार्यश्रीकी नेत्रज्योति-मन्दता चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराजकी आँखोंकी ज्योति पिछले कई वर्षोंसे मन्द होने लगी थी और वह मन्दसे मन्दतर एवं मन्दतम होती गई। आचार्य महाराज नश्वर शरीरके प्रति परम निस्पृही और विवेकवान होते हए भी इस ओरसे कभी उदासीन नहीं रहे और न शरीरकी उपयोगिताके तत्त्वको वे कभी भले। 'शरीरमाद्यं खल धर्मसाधनम्'-शरीर धर्मका प्रथम साधन है, इसे उन्होंने सदा ध्यानमें रखा और आंखोंकी ज्योति-मन्दताको दर करने के लिए भक्तजनोंद्वारा किये गये उपचार-प्रयत्नोंको सदैव अपनाया । महाराज स्वयं कहा करते थे कि 'भाई! आंखोंकी ज्योति संयम पालन में सहायक है और इस लिए हमें उसका ध्यान रखना आवश्यक है परन्तु यदि वह हमें जवाब देदे तो हमें भी उसे जवाब देना पड़ेगा।' यथार्थमें आत्माके अमरत्वमें आस्था रखने वाले मुमक्ष साधु का यही विवेक होता है। अत एव आचार्यश्रीने समय-समय पर उचित और मार्गाविरोधी उपचारोंको अपनाया तथा पर्याप्त औषधियोंका प्रयोग किया । किन्तु आंखोंकी ज्योतिमें अन्तर नहीं पड़ा, प्रत्यत वह मन्द ही होती गई। धार्मिक भक्तजनों द्वारा सुयोग्य डाक्टरों के लिए भी महाराजकी आँखें दिखाई गईं । परन्तु उन्हें भी सफलता नहीं मिली। समाधिमरण-धारणका निश्चय ऐसी स्थितिमें आचार्यश्रीके सामने दो ही मार्ग थे, जिनमेंसे उन्हें एक मार्गको चनना था। वे मार्ग थे-शरीररक्षा या आत्मरक्षा । दोनोंकी रक्षा अब सम्भव नहीं थी। जबतक दोनोंकी रक्षा सम्भव थी तबतक उन्होंने दोनोंका ध्यान रखा। उन्होंने अन्तर्दृष्टि से देखा कि 'अब मुझे एककी रक्षाका मोह छोड़ना पड़ेगा । शरीर ८४ वर्षका हो चुका, वह जाने वाला है, नाशशील है, अब वह अधिक दिन नहीं टिक सकेगा। एक-न-एक दिन उससे मोह अवश्य छोड़ना पड़ेगा। इन्द्रियाँ जवाब दे रही हैं। आंखोंने जवाब दे ही दिया है। विना आंखोंकी ज्योतिके यह सिद्धसम आत्मा पराश्रित हो जायेगा। ईर्यासमिति और एषणासमिति नहीं पल सकतीं। क्या इन आत्मगणोंको नाशकर अवश्य जाने-वाले जीर्ण-शीर्ण शरीरकी रक्षाके लिए मैं अन्न-पान ग्रहण करता रहूं? क्या आत्मा और शरीरके भेदको समझनेवाले तथा आत्माके अमरत्वमें आस्था रखने वाले साधुके लिए यह उचित है ? जिन ईर्यासमिति ( जीवदया), एषणासमिति (भोजनशुद्धि ) आदि आत्ममूलगुणोंके विकास, वृद्धि एवं रक्षाके लिए अनशनादि तप किये, उपसर्ग सहन -४४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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