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________________ पर इन्द्रभूति उसका अर्थ बताने में असमर्थ थे । इस असमर्थताको प्रकट करना भी उनके स्वाभिमान और त्ताके प्रतिकूल था। फलतः वे ब्राह्मणवटुवेशधारी इन्द्रके साथ उनके गुरुसे शास्त्रार्थ करने की इच्छासे चल दिये और पीछे-पीछे उनके शिष्य भी चल पड़े। महावीर विपुलगिरिपर एक सभा स्थलमें ऊँचे आसनपर विराजमान थे । सभास्थल (समवसरण)के समक्ष मानस्तम्भ था। इन्द्रभूतिने ज्यों ही सभास्थलमें प्रवेश किया त्यों ही मानस्तम्भके देखते ही उनका अहंकार दूर हो गया और सारा ज्ञान निर्मल हो गया। उनके अहंकार-जन्य सारे विचार बदल गये और निर्मल-चित्त हो गये । सम्यक्त्वको प्राप्ति होनेमें उन्हें देर न लगी। महावीरके पादमूलमें उनका शिष्यत्व ग्रहणकर निर्ग्रन्थ-दीक्षा ले ली और उनके प्रथम गणधर (पट्ट शिष्य) हो गये तथा चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय) एवं उत्कृष्ट संयमके धारक वे कुछ क्षणोंमें बन गये। इसे परिणामोंकी विचित्रता ही समझना चाहिए। इस तरह इन्द्रभूति महावीरके ऐसे महान् प्रभावशाली प्रथम शिष्य हैं, जिनके द्वारा उनके ३० वर्ष व्यापी उपदेश द्वादशांग श्रुतके रूपमें निबद्ध किये गये । अन्तमें इन्द्रभतिने अपना समग्र श्रत-महावीरके दसरे शिष्य एवं अपने उत्तराधिकारी सुधर्म स्वामीको देकर १२ वर्ष तक केवली रहकर निर्वाण-लाभ लिया । RAAND 34 -४२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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