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________________ विहारकी महान् देन : तीर्थंकर महावीर और इन्द्रभूति विहारकी महत्ता विहारकी माटी बड़ी पावन है । उसने संस्कृतिके निर्माताओंको जन्म देकर अपना और सारे भारतका उज्ज्वल इतिहास निर्मित किया है। सांस्कृतिक चेतनाको उसने जगाया है। राजनैतिक दृष्टिसे भी भारतके शासकीय इतिहासमें विहारका नाम शीर्ष और स्मरणीय रहेगा । विहारने ही सर्वप्रथम गणतन्त्र (लोकतन्त्र)को जन्म दिया और राजनीतिक क्रान्ति की । यद्यपि वैशालीका वह लिच्छवियोंका गणतन्त्र आजके भारतीय गणतन्त्रको तुलनामें बहुत छोटा था। किन्तु चिरकालसे चले आये राजतन्त्रके मुकाबले में वैशाली गणतन्त्रकी परिकल्पना और उसकी स्थापना निश्चय ही बहुत बड़े साहसपूर्ण जनवादी कदम और विहारियोंकी असाधारण सूझबूझकी बात है। सांस्कृतिक चेतनामें जो कुण्ठा, विकृति और जड़ता आ गयी थी, उसे दूरकर उसमें नये प्राणोंका संचार करते हए उसे सर्वजनोपयोगी बनानेका कार्य भी विहारने ही किया, जिसका प्रभाव सारे भारतपर पड़ा। बुद्ध कपिलवस्तु (उत्तर प्रदेश) में जन्मे । पर उनका कार्यक्षेत्र विहार खासकर वैशाली, राजगृह आदि ही रहा, जहाँ तीर्थंकर महावीर व अन्य धर्मप्रचारकोंकी धूम थी। महावीर और गौतम इन्द्रभूति तो विहारकी ही देन हैं, जिन्होंने संस्कृतिमें आयी कुण्ठा एवं जड़ताको दूर किया, उसे सँवारा, निखारा और सर्वोदयी बनाया । प्रस्तुत निबन्धमें हम इन दोनोंके महान् व्यक्तित्वोंके विषयमें ही विचार करेंगे और उनकी महान् देनोंका दिशा-निर्देश करेंगे । तीर्थंकर महावीर तीर्थकर महावीर जैनधर्मके चौबीस तीर्थंकरोंमें अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आजसे २५७३ वर्ष पूर्व वैशालीके निकटवर्ती क्षत्रियकुण्डमें राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला, जिनका दूसरा नाम प्रियकारिणी था, की कुक्षिसे चैत्र शुक्ला १३ को इनका जन्म हुआ था। राजा सिद्धार्थ ज्ञातवंशी क्षत्रिय थे और क्षत्रियकुण्डके शासक थे। वैशाली गणतन्त्रके अध्यक्ष (नायक) राजा चेटकके साथ इनका घनिष्ठ एवं आत्मीय सम्बन्ध था। उनकी पुत्री त्रिशला इन्हें विवाही थी। उस समय विहार और भारतको धार्मिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी। धर्मके नामपर अन्धश्रद्धा, मूढ़ता और हिंसाका सर्वत्र बोलबाला था। पशुबलि और नरबलिकी पराकाष्ठा थी। और यह सब होता था उसे धर्म मानकर । महावीर वचपनसे ही विवेकी, प्रज्ञावान और विरक्त स्वभावी थे। उनसे समाजकी यह स्थिति नहीं देखी गयी । उसे सुधारा जाय, यह सोचकर भरी जवानीमें ३० वर्षकी वयमें ही घर, राज्य और संसारसे विरक्त होकर संन्यास ले लिया-निर्ग्रन्थ दीक्षा ले ली। १२ वर्ष तक जंगलोंमें, पर्वतगुफाओंमें और वृक्षकोटरोंमें समाधि लगाकर आत्म-चिन्तन किया तथा कठोर-से-कठोर अनशनादि तपोंका आचरण किया। यह सब मौनपूर्वक किया। कभी किसीके कुछ पूछने और उत्तर न मिलनेपर उन्हें पागल समझा गया। किन्तु वे तो निरन्तर आत्म-चिन्तनमें लीन रहते थे। फलतः उन्हें लोगों द्वारा पहुँचाये गये बहुत कष्ट भी सहने पड़े । उन्हें जब केवलज्ञान हो गया और योग्य शिष्य इन्द्रभूति गौतम पहुँच गये, तब उनका मौन टूटा और लगातार तीस वर्ष तक उनके उपदेशोंकी धारा प्रवाहित हई। उनके पवित्र उपदेशों और -४२३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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