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________________ तव्वयणं सोऊणं तिवई आप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अन्भहियजायहरिसो तस्स मरीई इमं भणई ॥३०॥ जइ वासुदेवु पढमो मूआइ विदेहि चक्कवट्टित्तं । चरमो तित्थयराणं होऊ अलं इत्ति मज्झ ॥४३१॥ १०. शंका-पूजा और अर्चामें क्या भेद हैं ? क्या दोनों एक हैं ? १०. समाधान-यद्यपि सामान्यतः दोनोंमें कोई भेद नहीं है, पर्यायशब्दोंके रूप में दोनोंका प्रयोग रूढ़ है तथापि दोनोंमें कुछ सूक्ष्म भेद जरूर है । इस भेदको श्रीवीरसेनस्वामीने षट्खण्डागमके 'बन्धस्वामित्व' नामके दूसरे खण्डकी धवला-टीका पुस्तक आठमें इस प्रकार बतलाया है ___ "चरु-बलि-पुष्फ-फल-गंध-धूप-दीवादीहि समभत्तिपयासो अच्चण णाम । एदाहि सह अइंदधय-कप्परक्ख-महामह-सव्वदोभद्दादिमहिमाविहाणं पूजा णाम ।" पृ० ९२ ।। अर्थात् चरु, बलि (अक्षत), पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप इत्यादिसे अपनी भक्ति प्रकाशित करना अर्चना (अर्चा) है और इन पदार्थोके साथ ऐन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष, महामह, सर्वतोभद्र आदि महिमा (धर्मप्रभावना) का करना पूजा है। ___ तात्पर्य यह कि फलादि द्रव्योंको चढ़ा कर (स्वाहापूर्वक समर्पण कर) संक्षेपमें लघु भक्तिको प्रकट करना अर्चा है और उक्त द्रव्यों सहित समारोहपूर्वक विशाल भक्ति प्रकट करना पूजा है । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रध्वज आदि पूजामहोत्सवोंका विधान वीरसेनस्वामीसे बहुत पहलेसे विहित है और जैन शासनकी प्रभावनामें उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । ११. शंका-निम्न पद्य किस ग्रन्थका मूल पद्य है ? उसका मूल स्थान बतलायें ? सुखमाल्हादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्यायूनः कान्तासमागमे ॥ ११. समाधान-उक्त पद्य अनेक ग्रन्थोंमें उद्धृत पाण जाता है। आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (पृ० ७८) में इसे 'इति वचनात्' शब्दोंके साथ दिया है। आचार्य अभयदेवने सन्मतिसूत्र-टोका (पृ० ४७८) में इस पद्य को उद्धृत करते हुए लिखा है ___ "न च सौगतमतमेतत्, न जैनमतमिति वक्तव्यम्, 'सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः' [ ] इति जैनैरभिधानात् । तथा च सहभावित्वं गुणानां प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम्-" ___इसके बाद उक्त पद्य दिया है। सिद्धिविनिश्चयटीकाकार बड़े अनन्तवीर्यने इसी पद्यका निम्न प्रकार उल्लेख किया है ___"कथमन्यथा न्यायविनिश्चये 'सहभुवो गुणाः' इत्यस्य 'सुखमाल्हादनाकारं....' इति निदर्शनं स्यात् ।"-(टी० लि. पृ० ७६ ।) अभयदेव और अनन्तवीर्यके इन उल्लेखोंसे प्रतीत होता है कि गुणोंके सहभावीपना प्रतिपादन करनेके लिए दृष्टान्तके तौरपर उसे अकलदेवने न्यायविनिश्चयमें कहा है। परन्तु न्यायविनिश्चय मूलमें यह पद्य उपलब्ध नहीं होता । हो सकता है उसको स्वोपज्ञवृत्ति में उसे कहा हो। मूलमें तो सिर्फ ११वीं कारिकामें इतना ही कहा है कि 'गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमवृत्तयः'। यदि वस्तुतः यह पद्य न्यायविनिश्चयवृत्तिमें कहा -४०९ - ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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