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________________ इसलिए वे दो भिन्न स्थानोंपर भिन्न-भिन्न पर्यायनामसे उसका उल्लेख कर सकते हैं । दूसरे यतिवृषभने पूज्यपादकी निर्वाणभक्तिमें उनके द्वारा पाण्डुगिरिके लिए नामान्तर रूपसे प्रयुक्त कुण्डलगिरि नामको पाकर कुण्डलगिरिका भी नामोल्लेख किया है, यह सरलतासे कहा जा सकता है। पूज्यपादके उल्लेखसे ज्ञात होता है कि उनके समयमें पाण्डुगिरिको जो वृत्त (गोल) है, कुण्डलगिरि भी कहा जाता था। अतएव उन्होंने पान्डुगिरिके स्थानमें कुण्डलगिरि नाम दिया है । इसमें लेश भी आश्चर्य नहीं है कि पाण्डुगिरि और कुण्डलगिरि एक ही पर्वतके दो नाम है, क्योंकि कुण्डलका आकार गोल होता है और पाण्डुगिरिको वृत्ताकार (गोलाकार) सभी आचार्योंने बतलाया है। जैसा कि ऊपरके उद्धरणोंसे प्रकट है। दूसरे, पूज्यपादने पांच पहाड़ोंमें पाण्डुगिरिका उल्लेख नहीं किया-जिसका उल्लेख करना अनिवार्य था, क्योंकि वह पांच सिद्धक्षेत्र-शैलोंमें परिगणित है। किन्तु कुण्डलगिरिका उल्लेख किया है। तीसरे, एक पर्वतके एकसे अधिक नाम देखे जाते हैं । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं। अतः इस संक्षिप्त अनुसन्धानसे यही तथ्य निकलता है कि जैन साहित्यमें पाण्डुगिरि और कुण्डलगिरि एक है-पृथक्-पृथक् नहीं-एक ही पर्वतके दो नाम हैं । ऐसी वस्तुस्थितिमें मह कहना अयु क्त न होगा कि यतिवृषभने पाण्डुगिरिको ही कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र बतलाया है एवं उल्लेखित किया है । और यह कुण्डलगिरि राजगृहके निकटवर्ती पाँच पहाड़ोंके अन्तर्गत है। इसलिए मध्यप्रदेशके दमोहजिलान्तर्गत पटेरा ग्रामके पासका कुण्डलपुर या कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र नहीं जान पड़ता है और न उसे शास्त्रोंमें सिद्धक्षेत्र घतलाया गया है । जिस कुण्डलगिरि या पाण्डुगिरिको सिद्धक्षेत्र कहा गया है वह विहार प्रदेशके पंचशैलोंमें परिगणित पाण्डुगिरि या कुण्डलगिरि है । अतः मेरे विचार और खोजसे दमोहके कुण्डलपुर या कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र घोषित करना जल्दबाजी होगी और एक भ्रान्त परम्परा चल उठेगी। परिशिष्ट उक्त लेखके लिखे जानेके बाद हमें कुछ सामग्री और मिली हैदमोहके कुण्डलगिरि या कुण्डपुरकी ऐतिहासिकता नहीं जब हम दमोहके पार्श्ववर्ती कुण्डलगिरि या कुण्डलपुरकी ऐतिहासिकतापर विचार करते हैं तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते । केवल विक्रम संवत्की अठारहवीं शताब्दीका उत्कीर्ण हुआ एक शिलालेख प्राप्त होता है, जिसे महाराजा छत्रसालने वहाँ चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराते समय खुदावाया था । कहा जाता है कि कुंडलपुर में भट्टारकी गद्दी थी। इस गद्दीपर छत्रसालके समकालमें एक प्रभावशाली एवं मन्त्रविद्याके ज्ञाता भट्रारक जब प्रतिष्ठित थे तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वादसे छत्रसालने एक बड़ी भारी पवनसेनापर विजय प्राप्त की थी। इससे प्रभावित होकर छत्रसालने कुण्डलपरके चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराया था और जिनमन्दिरके लिए अनेक उपकरणोंके साथ दो मनके करीबका एक बहद घंटा (पीतलका) प्रदान किया था, जो बादमें चोरीमें चला गया था और अब वह पन्ना स्टेट (म० प्र०) में पकड़ा गया है। उक्त शिलालेख विक्रम सं० १७५७ माघ सुदी १५ सोमवारको उत्कीर्ण हुआ है और वहींके चैत्या १, यह मुझे मित्रवर पं० परमानन्दजी शास्त्रीसे मालूम हुआ हैं । -४०० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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