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________________ प्रथम झलक •श्री सुमेरचन्द्र कौशल, बी० ए०, एल० एल० बी०, सिवनी मैं एक लम्बा समय व्यतीत हो चुका है । लगभग दो दशाब्दि । गर्मीके दिन थे ग्यारह-साढ़े ग्यारहकी बेला थी। ज्योंही मैं भव्य बड़े मन्दिरकी दूसरे मंजिलपर स्थित सरस्वती-भवन में शास्त्र-स्वाध्याय कर बाहर आया, वैसे ही अपने सामने, एक हमकद और हमउम्र, गौर वर्ण, धवल गांधी-टोपी, कुरता तथा धोतीमें एक आकर्षक सरल व्यक्तित्वको देखकर; सहसा मुंहसे निकल जाता है-'पण्डितजी जय जिनेन्द्र ।' वे प्रत्युत्तरमें 'जय जिनेन्द्र' कहकर मुझसे बोले-'कौशलजी।' मैं नतमस्तक हो स्वीकारकी मद्रामें उनकी ओर जरा देखता हूँ कि वे स्वयम् कह उठते हैं-'दरबारीलाल कोठिया ।' फिर तो हम दोनोंको मुखमुद्रा खिल उठी । “इस सादगीपर कौन न मर जाय ऐ खुदा !' विचार आता है कि पण्डितजीसे भोजनके लिए कहूँ कि वे दूसरे मन्दिरोंके दर्शनार्थ बढ़ जाते हैं । मैं यह सोचकर रह जाता हूँ; मध्याह्नकी गर्मीका समय है; सन्ध्याको उनके पास पहुँचकर कुछ तात्त्विक, धार्मिक, साहित्यिक चर्चाका लाभ उठाऊँगा और दूसरे दिनके लिए भोजनका निमन्त्रण भी कर दूंगा। परन्तु शामको उनके निवासपर जानेसे मालूम हुआ कि पंडितजी दोपहर बाद ही चले गये । इस तरह हृदयकी हृदयमें ही रह गई । कोठियाजीकी विद्वत्ता, उनकी अर्धशताब्दिकी सामाजिक, धार्मिक तथा साहित्यिक सेवाके विषयमें दो मत नहीं हो सकते हैं । उनके द्वारा लिखित साहित्यसे स्पष्ट है कि वे एक गम्भीर सुलझे हुए विद्वान् है । अभिनन्दन-ग्रन्थ-प्रकाशन समिति व सम्पादक-मंडलका धन्यवादाह है क्योंकि डॉ० कोठियाजीकी जन्मसे प्रखर बुद्धि, उनका अनवरत साश्रम वृद्धिंगत जीवनके साथ-साथ उनके समस्त साहित्यका निर्दशन अभिनन्दन ग्रन्थमेंमें एक अभूतपूर्व बात है, जो साधारण तथा असाधारण सभी प्रकारके पाठकोंके लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। अभिनन्दनीय श्री कोठियाजी स्वस्थ रहते हुए, दीर्घतम आयु प्राप्त कर इसी प्रकार समाज, साहित्य और धर्मकी सेवा करते रहें, यही श्रीजीसे विनय है। जिसकी पहली झलकने, वरबस खींचा ध्यान । जन्मजात विद्वान्का, "कौशल" करता मान । न्यायदिवाकर डॉ० कोठियाजी •पं० मोहनलालजी शास्त्री, जबलपुर श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र रेशन्दीगिरि (छतरपुर) म०प्र० की पावन वसुन्धराने अपने में आपके शुभजन्मसे अपनी पावनता द्विगुणित की और इस पावन वसुन्धराका संसर्ग आपको महती पावनता एवं महत्ता उपलब्ध कराने हेतु बना। विद्वद्रत्नप्रसू स्याद्वाद् महाविद्यालय वाराणसीके आप प्रमुख छात्र उद्भट विद्वान् प्रमाणित हुए। इस संस्थासे सैकड़ों उत्तमोत्तम विद्वान् बने । परन्तु यहाँसे सर्वोत्तम शिक्षा प्राप्त कर जैसा अनुपमेय कार्य आपने किया, वैसा कार्य अन्य विद्वान नहीं कर सके । यही कारण है कि आपने जैन न्याय जैसे गहन और जटिल विषयके 'स्याद्वादसिद्धि' । 'प्रमाणपरीक्षा' आदि उत्तमोत्तम तेरह ग्रन्थोंका सम्पादन किया। आप भारी सरल एवं वात्सल्यके निधान हैं। अपने समकक्ष विद्वानोंको देखकर आप विशेष हर्षानुभूति करते हैं। मुझे तो आपने अनेक बार छातीसे लगाया है और कहा है कि भैया जैन साहित्य-प्रकाशन द्वारा तुमने भारी प्रशस्त कार्य किया है। आप देश व समाजके गौरव है । मैं आपकी शतायुष्कताकी हार्दिक शुभ-कामना करता हूँ । -१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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