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________________ श्रुतमें स्त्री और पुरुष दोनोंको मोक्ष स्वीकार किया गया है तथा दोनों एक-दूसरेके मोक्षमें उपद्रवकारी हैं । कोई कारण नहीं कि स्त्रीपरीषह तो अभिहित हो और पुरुषपरीषह अभिहित न हो, क्योंकि सचेल श्रुतके अनुसार उन दोनों में मुक्तिके प्रति कोई वैषम्य नहीं । किन्तु दिगम्बर श्रुतके अनुसार पुरुषमें वज्रवृषभनाराचसंहननत्रय हैं, जो मुक्तिमें सहकारी कारण हैं । परन्तु स्त्रोके उनका अभाव होनेसे उसे मुक्ति संभव नहीं है और इसीसे तत्त्वार्थसूत्र में मात्र स्त्रीपरीषहका प्रतिपादन है, पुरुषपरीषहका नहीं । इसी प्रकार दंशमशक परीषह सचेलसाधुको नहीं हो सकती-नग्न-दिगम्बर-पूर्णतया अचेल साधुको ही संभव है । समीक्षकने इन दोनों बातोंकी भी समीक्षा करते हुए हमसे प्रश्न किया है कि 'जो ग्रन्थ इन दो परीषहोंका उल्लेख करता हो, वह दिगम्बर परम्पराका होगा, यह कहना भी उचित नहीं है । फिर तो उन्हें श्वे० आचार्यों एवं ग्रन्थोंको दिगम्बर परम्पराका मान लेना होगा, क्योंकि उक्त दोनों परीषहों का उल्लेख तो सभी श्वे० आचार्योंने एवं श्वे. आगमोंमें किया गया और किसी श्वे० ग्रन्थमें पुरुषपरीषहका उल्लेख नहीं है।' समीक्षकका यह आपादन उस समय बिल्कुल निरर्थक सिद्ध होता है जब जैन संध एक अविभक्त संघ था और तीथंकर महावीरकी तरह पूर्णतया अचेल (सर्वथा वस्त्र रहित) रहता था। उसमें न एक, दो आदि वस्त्रोंका ग्रहण था और न स्त्रीमोक्षका समर्थन था । गिरि-कन्दराओं, वृक्षकोटरों, गुफाओं, पर्वतों और वनोंमें ही उसका वास था। सभी साधु अचेलपरीषहको सहते थे । आ० समन्तभद्र (२ रो-३ री शती) के अनुसार उनके कालमें भी ऋषिगण पर्वतों और उनकी गुफाओं में रहते थे । स्वयम्भस्तोत्रमें २२व तीर्थंकर अरिष्टनेमिके तपोगिरि एवं निर्वाणगिरि ऊर्जयन्त पर्वतको 'तीर्थ-संज्ञाको वहन करनेवाला बतलाते हए उन्होंने उसे ऋषिगणोंसे परिव्याप्त कहा है । और उनके कालमें भी वह वैसा था। भद्रबाहुके बाद जब संघ विभक्त हआ तो उसमें पार्थक्यके बीज आरम्भ हो गये औ वे उत्तरोत्तर बढ़ते गये। इन बीजोंमें मुख्य वस्त्रग्रहण था । वस्त्रको स्वीकार कर लेनेपर उसकी अचेल परीषहके साथ संगति बिठानेके लिए उसके अर्थमें परिवर्तनकर उसे अल्पचेलका बोधक मान लिया गया। तथा सवस्त्र साधुकी मुक्ति मान ली गयी । फलतः सवस्त्र स्त्रीकी मुक्ति भी स्वीकार कर ली गयी । साधुओंके लिए स्त्रियों द्वारा किये जानेवाले उपद्रवोंको सहन करने की आवश्यकतापर बल देने हेतु संवरके साधनों में स्त्रीपरीषहका प्रतिपादन तो ज्यों-का-त्यों बरकरार रखा गया। किन्तु स्त्रियों के लिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले उपद्रवोंको सहन करने हेतु संवरके साधनोंमें पुरुषपरीषहका प्रतिपादन सचेल श्रुतमें क्यों छोड़ दिया गया, यह वस्तुतः अनुसन्धेय एवं चिन्त्य है । अचेल श्रुतमें ऐसा कोई विकल्प नहीं है। अतः तत्त्वार्थसूत्र में मात्र स्त्रीपरीषहका प्रतिपादन होनेसे वह अचेल श्रुतका अनुसारी है। स्त्रीमुक्ति को स्वीकार न करनेसे उसमें पुरुषपरीषहके प्रतिपादनका प्रसंग ही नहीं आता । स्त्रीपरीषह और दंशमशकपरीषह इन दो परीषहोंके उल्लेखमात्रसे ही तत्त्वार्थ सूत्र दिगम्बर ग्रन्थ नहीं है, जिससे उनका उल्लेख करने वाले सभी श्वे० आचार्य और ग्रन्थ दिगम्बर परम्पराके हो जाने या माननेका प्रसंग आता, किन्तु उपरिनिर्दिष्ट वे अनेक बातें हैं, जो सचेल श्रुतसे विरुद्ध हैं और अचेल श्रुतके अनुकूल हैं । ये अन्य सब बातें श्वे० आचार्यों और उनके ग्रन्थोंमें नहीं हैं। इन्हीं सब बातोंसे दो परंपराओंका जन्म हुआ और महावीर तीर्थकरसे भद्रबाह श्रुतकेवली तक एक रूपमें चला आया जैन संघ टुकड़ोंमें बँट गया। तीव्र एवं मूलके उच्छेदक विचार-भेदके ऐसे ही परिणाम निकलते हैं। दंशमशकपरोषह वस्तुतः निर्वस्त्र (नग्न) साधुको ही होना सम्भव है, सवस्त्र साधुको नहीं, यह साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। जो साध एकाधिक कपड़ों सहित हो, उसे डांस-मच्छर कहांसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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