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________________ निदेशक होकर भी तथ्यहीन और भड़काने वाली शब्दावलीका आरोप हमपर लगा रहे हैं। जहां तक जैन न्यायके विकासका प्रश्न है उसमें हमने स्पष्टतया बौद्ध और ब्राह्मण न्यायके विकासको प्रेरक बतलाया है और उनकी शास्त्र-रचनाको जैन न्यायकी शास्त्र-रचनामें सहायक स्वीकार किया है । हाँ, जैन न्यायका उद्गम उनसे नहीं हुआ, अपितु दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगश्रुतसे हुआ। अपने इस कथनको सिद्धसेन (द्वात्रिंशिकाकार)', अकलङ्क, विद्यानन्द और यशोविजय के प्रतिपादनोंसे पुष्ट एवं प्रमाणित किया है। हम पाठकों, खासकर समीक्षकसे अनुरोध करेंगे कि वे उस निबन्धको गौरसे पढ़नेकी कृपा करें और सही स्थिति एवं तथ्यको अवगत करें। प्रश्न ४ और उसका समाधान सम्पादकने चौथे और अन्तिम मुद्देमें मेरे 'तत्त्वार्थसूत्रकी परम्परा' निबन्धको लेकर लिखा है कि 'अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिनमें तत्त्वार्थसूत्रकार और दिगम्बर आचार्योंमें भी मतभेद है । अत: कुछ बातोंमें तत्त्वार्थसत्रकार और अन्य श्वेताम्बर आचार्योंमें मतभेद होना इस बातका प्रमाण नही है कि तत्त्वार्थसूत्रकार श्वेताम्बर परम्पराके नहीं हो सकते ।' अपने इस कथनके समर्थनमें कुन्दकुन्द और तत्त्वार्थसूत्रकारके नयों और गृहस्थके १२ व्रतों सम्बन्धी मतभेदको दिया है। इसी महमें हमारे लेखमें आयी कुछ बातोंका और उल्लेख किया है। तत्त्वार्थसूत्रकी परम्परापर गहरा विमर्श इस मुद्दे पर भी हम विचार करते हैं । प्रतीत होता है कि सम्पादक महोदय मतभेद और परम्पराभेद दोनोंमें कोई अन्तर नहीं मान रहे हैं, जबकि उनमें बहत अन्तर है। वे यह तो जानते हैं कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहके बाद जैन संघ दो परम्पराओंमें विभक्त हो गया-एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर ये दोनों भी उप-परम्पराओंमें विभाजित हैं । किन्तु मूलतः दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो ही परम्पराएँ हैं। जो आचार्य दिगम्बरत्वका और जो श्वेतान्बरका समर्थन करते हैं वे क्रमशः दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्य कहे जाते हैं तथा उनके द्वारा निर्मित साहित्य दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य माना जाता है । ___ अब देखना है कि तत्त्वार्थसूत्र में दिगम्बरत्वका समर्थन है या श्वेताम्बरत्त्वका । हमने उक्त निबन्धमें इसी दिशामें विचार किया है। इस निबन्धकी भूमिका बांधते हुए उसमें प्राग्वृत्तके रूपमें हमने लिखा है कि जहाँ तक हमारा ख्याल है, सबसे पहले पण्डित सुखलालजी 'प्रज्ञाचक्षु' ने तत्वार्थसूत्र और उसकी व्याख्याओं तथा कर्तृत्व विषयमें दो लेख लिखे थे और उनके द्वारा तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ताको तटस्थ परम्परा (न दिगम्बर, न श्वेताम्बर) का सिद्ध किया था। इसके कोई चार वर्ष बाद सन् १९३४ में उपाध्याय श्री आत्मारामजीने कतिपय श्वेताम्बर आगमोंके सूत्रोंके साथ तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका तथोक्त समन्वय करके 'तत्त्वार्थसूत्रजैनागम-समन्वय' नामसे एक ग्रन्थ लिखा और उसमें तत्वार्थसूत्रको श्वेताम्बर परम्पराका ग्रन्थ प्रसिद्ध किया । जब यह ग्रन्थ पण्डित सुखलाल जीको प्राप्त हुआ, तो अपने पूर्व (तटस्थ परम्परा) के विचार१. द्वात्रिशिका, १-३०, ४-१५ । २. तत्त्वार्थवा० ८.१, पृ० २९५ । ३. अष्टस० पृ० २३८ । ४. अस्टसह० वि० टी०, पृ० १। ५. जैन दर्शन और प्रमाणशा०, पृ० ७६ । -३८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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