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________________ अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक : कुछ प्रश्न और समाधान प्राग्वृत्त 'श्रमण' के सम्पादकने 'जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' की समीक्षा में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिनका स्पष्टीकरण आवश्यक है । यद्यपि समीक्षकको समीक्षा करनेकी पूरी स्वतन्त्रता होती है, किन्तु उसे यह भी अनिवार्य है कि वह पूर्वाग्रहसे मुक्त रहकर समीध्यके गुण-दोषोंका पर्यालोचन करे । यही समीक्षाकी मर्यादा है । ज्ञातव्य है कि समीक्षित ग्रन्थके शोध निबन्ध और अनुसन्धानपूर्ण प्रस्तावनाएँ आजसे लगभग ३९ वर्ष पूर्व (सन् १९४२ से १९७७ तक ) ' अनेकान्त', 'जैन सिद्धान्त - भास्कर' आदि पत्रों तथा न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थों में प्रकाशित हैं । किन्तु विगत वर्षों में 'श्रमण' के सम्पादक या अन्य किसी विद्वान्ने उनपर कोई प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की । अब उन्होंने उक्त समीक्षा में ग्रन्थके कुछ लेखोंके विषयोंपर प्रतिक्रिया व्यक्त की है । परन्तु उसमें अनुसन्धान और गहराईका नितान्त अभाव है । हमें प्रसन्नता होती, यदि वे पूर्वाग्रह से मुक्त होकर शोध और गम्भीरता के साथ उसे प्रस्तुत करते । यहाँ उनके उठाये प्रश्नों अथवा मुद्दोंपर विचार करूँगा । १. प्रश्न १ और उसका समाधान : सम्पादकका प्रथम प्रश्न है कि 'समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा आदि कृतियों में कुमारिल, धर्मकीर्ति आदिकी मान्यताओं का खण्डन होनेसे उसके आधारपर समन्तभद्रको ही उनका परवर्ती क्यों न माना जाये ?" स्मरण रहे कि हमने 'कुमारिल और समन्तभद्र' शीर्षक ' शोध निबन्धमें सप्रमाण यह प्रकट किया है कि समन्तभद्रकी कृतियों (विशेषतया आप्तमीमांसा) का खण्डन कुमारिल और धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंमें पाया जाता है । अतएव समन्तभद्र उक्त दोनों ग्रन्थकारोंसे पूर्ववर्ती हैं, परवर्ती नहीं । यहाँ हम पुनः उसीका विचार करेंगे । हम प्रश्नकर्ता पूछते हैं कि वे बतायें, कुमारिल और धर्मकीर्तिको स्वयंकी वे कौन-सी मान्यताएँ हैं जिनका समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा आदि कृतियोंमें खण्डन है ? इसके समर्थन में प्रश्नकारने एक भी उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया । इसके विपरीत दोनों ग्रंथकारोंने समन्तभद्रकी ही आप्तमीमांसागत मान्यताओं का खण्डन किया है। यहाँ हम दोनों ग्रंथकारोंके ग्रन्थोंसे कुछ उदाहरण उपस्थित करते हैं । समन्तभद्र द्वारा अनुमानसे सर्वज्ञ-सिद्धि : (१) जैनागमों तथा कुन्दकुन्दके प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में सर्वज्ञका स्वरूप तो दिया गया है परंतु १. अनेकान्त, वर्ष ५, किरण १२, ई० १९४५, जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परि०, पृ०५३८, वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी - ५ जून १९८० । २. (क) सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि । षट्खं० ५।५।९८ । (ख) से भगवं अरिहं जिणो केवली सम्वन्नू सव्वभावदरिसी सव्वलोए जाणमाणो पासमाणो । ३. प्रवच० सा०, १४७, ४८, ४९, कुन्दकुन्द - भारती, फल्टन, १९७० । Jain Education International - ३७९ - - For Private & Personal Use Only सम्वजीवाणं सव्वं भावाई - आचारां० सू० २ श्रु० ३ www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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